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________________ करता है तो कृष्ण आते हैं । बुद्ध का भक्त आंख बंद करता है तो बुद्ध आते हैं। महावीर का भ आंख बंद करता है तो महावीर आते हैं। जैन को तो क्राइस्ट नहीं आते। क्रिश्चियन को तो महावीर नहीं । जो तुम कल्पना साधते हो वही आ जाती है। रामकृष्ण ने काली को साधा है तो कल्पना प्रगाढ़ हो गई है। बार-बार पुनरुक्ति से, निरंतर - निरंतर स्मरण से कल्पना इतनी यथार्थ हो गई है कि अब लगता है काली सामने खड़ी है। कोई वहां खड़ा नहीं। चैतन्य अकेला है। यहां कोई दूजा नहीं है, दूसरा नहीं है। तुम आंख करो बंद - तोतापुरी ने कहा – उठाओ तलवार और तोड़ दो । रामकृष्ण आंख बंद करते, लेकिन आंख बंद करते ही हिम्मत खो जाती तलवार उठायें, काली को तोड़ने को ! भक्त भगवान को काटने को तलवार उठाये, यह बड़ी कठिन बात है ! संसार छोड़ना बड़ा सरल है। संसार में पकड़ने योग्य ही क्या है? लेकिन जब मन की किसी गहन कल्पना को खड़ाकर लिया हो, मन का कोई काव्य जब निर्मित हो गया हो, मन का स्वप्न जब साकार हो गया हो, तो छोड़ना बड़ा कठिन है। संसार तो दुख - स्वप्न जैसा है। भक्ति के स्वप्न, भाव के स्वप्न दुख - स्वप्न नहीं हैं, बड़े सुखद स्वप्न हैं। उन्हें छोड़ें कैसे, तोड़ें कैसे? आंख से आंसू बहने लगते। गदगद हो जाते। शरीर कंपने लगता । मगर वह तलवार न उठती। तलवार की याद ही भूल जाती । आखिर तोतापुरी ने कहा, बहुत हो गया कई दिन बैठकर ऐसे न चलेगा। या तो तुम करो या जाता हूं। मेरा समय खराब मत करो । यह खेल बहुत हो गया । तोतापुरी उस दिन एक कांच का टुकड़ा ले आया । और उसने कहा कि जब तुम मगन होने लगोगे, तब मैं तुम्हारे माथे को कांच के टुकड़े से काट दूंगा। जब मैं यहां तुम्हारा माथा काटूं तो भीतर एक दफा हिम्मत करके उठा लेना तलवार और कर देना दो टुकड़े। बस यह आखिरी है, फिर मैं न रुकूंगा । तोतापुरी की धमकी जाने की, और फिर वैसा गुरु खोजना मुश्किल होता ! तोतापुरी अष्टावक्र जैसा आदमी रहा होगा। जब रामकृष्ण आंख बंद किये, काली की प्रतिमा उभरी और वे मगन होने को ही थे, आंख से आंसू बहने को ही थे, उद्रेक हो रहा था, उमंग आ रही थी, रोमांच होने को ही था, कि तोतापुरी ने लिया माथे पर जहां आज्ञा चक्र है, वहां लेकर ऊपर से नीचे तक कांच के टुकड़े से माथा काट दिया। खून की धार बह गई । हिम्मत उस वक्त भीतर रामकृष्ण ने भी जुटा ली। उठा ली तलवार, दो टुकड़े कर दिये काली के । काली वहां गिरी कि अद्वैत हो गया, कि लहर खो गई सागर में, कि सरिता उतर गई सागर में। फिर तो कहते हैं, छह दिन उस परम शून्य में डूबे रहे । न भूख रही न प्यास; न बाहर की सुध रही न बुध, सब भूल गये। और जब छह दिन के बाद आंख खोली तो जो पहला वचन कहा वह यही - आखिरी बाधा गिर गई! द लास्ट बैरियर हैज़ फालन । यह पहला सूत्र कहता है : हे पुत्र ! तू बहुत काल से देहाभिमान के पाश में बंधा हुआ, उस पाश को ही अपना अस्तित्व मानने लगा है। मैं देह हूं! मैं देह हूं!! मैं देह हूं ! ! ! – ऐसा जन्मों-जन्मों तक दोहराया है; दोहराने के कारण ह देह हो गये हैं। देह हम हैं नहीं; यह हमारा अभ्यास है। यह हमारा अभ्यास है, यह हमारा आत्मसम्मोहन है। हमने इतनी प्रगाढ़ता से माना है कि हम हो गये हैं । रामकृष्ण 'के जीवन में एक और उल्लेख है । उन्होंने सभी धर्मों की साधनाएं की हैं। वे अकेले 114 अष्टावक्र: महागीता भाग-1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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