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की, रूसियों की— हजारों संस्कृतियां होनी चाहिए। क्योंकि वैविध्य जीवन को सुंदर बनाता है। बगीचे में बहुत तरह के फूल होने चाहिए। एक ही तरह के फूल बगीचे को ऊब से भर देंगे।
संस्कृतियां तो अनेक होनी चाहिए— अनेक हैं, अनेक रहेंगी। लेकिन धर्म एक होना चाहिए, क्योंकि धर्म एक है। और कोई उपाय नहीं है ।
तो मैं हिंदू को संस्कृति कहता हूं, मुसलमान को संस्कृति कहता हूं; धर्म नहीं कहता। ठीक है । संस्कृतियां तो सुंदर हैं। बनाओ अलग ढंग की मस्जिद, अलग ढंग के मंदिर । मंदिर सुंदर हैं, मस्जिदें सुंदर हैं। मैं नहीं चाहूंगा कि दुनिया में सिर्फ मंदिर रह जायें और मस्जिदें मिट जायें-बड़ा सौंदर्य कम हो जायेगा। मैं नहीं चाहूंगा कि दुनिया में संस्कृत ही रह जाये, अरबी मिट जाये -बड़ा सौंदर्य कम हो जायेगा । मैं नहीं चाहूंगा कि दुनिया में सिर्फ कुरान रह जाये, वेद मिट जायें, गीता-उपनिषद मिट जायें – दुनिया बड़ी गरीब हो जायेगी ।
कुरान सुंदर है; साहित्य की अनूठी कृति है, काव्य की बड़ी गहन ऊंचाई है - लेकिन धर्म से कुछ लेना-देना नहीं। वेद प्रिय हैं; अनूठे उदघोष हैं; पृथ्वी की आकांक्षाएं हैं आकाश को छू लेने की। उपनिषद अति मधुर हैं। उनसे ज्यादा मधुर वक्तव्य कभी भी नहीं दिए गये। वे नहीं खोने चाहिए। वे सब रहने चाहिए - पर संस्कृति की तरह ।
धर्म तो एक है। धर्म तो वह है जिसने हम सबको धारण किया - हिंदू को भी, मुसलमान को भी, ईसाई को भी । धर्म तो वह है जिसने पशुओं को, मनुष्यों को, पौधों को, सबको धारण किया है; जो पौधों में हरे धार की तरह बह रहा है; जो मनुष्यों में रक्त की धार की तरह बह रहा है; जो तुम्हारे भीतर श्वास की तरह चल रहा है; जो तुम्हारे भीतर साक्षी की तरह मौजूद है। धर्म ने तो सबको धारण किया है।
इसलिए धर्म को संस्कृति का पर्याय मत समझना । धर्म से संस्कृति का कोई लेना-देना नहीं । इसलिए तो रूस की संस्कृति हो सकती है; वहां कोई धर्म नहीं है। चीन की संस्कृति है; वहां अब कोई धर्म नहीं है । नास्तिक की संस्कृति हो सकती है, आस्तिक की हो सकती है। धर्म से संस्कृति का कोई लेना-देना नहीं है । धर्म तो तुम्हारे रहने-सहने से कुछ वास्ता नहीं रखता, धर्म तो तुम्हारे होने से वास्ता रखता है। धर्म तो तुम्हारा शुद्ध स्वरूप है, स्वभाव है। संस्कृति तो तुम्हारे बाहर के आवरण में, आचरण में, व्यवहार में, इन सब चीजों से संबंध रखती है— कैसे उठना, कैसे बोलना, क्या कहना, क्या नहीं
कहना...।
धर्म से कोई परंपरा नहीं बनती। धर्म परंपरा नहीं है । धर्म तो सनातन, शाश्वत सत्य है । परंपराएं तो आदमी बनाता है— धर्म तो है । परंपराएं आदमी से निर्मित हैं; आदमी के द्वारा बनायी गयी हैं। धर्म, आदमी से पूर्व है। धर्म के द्वारा आदमी बनाया गया है। इस फर्क को खयाल में ले लेना ।
इसलिए परंपरा को भूल कर भी धर्म मत समझना और धार्मिक व्यक्ति कभी पारंपरिक नहीं होता, ट्रेडीशनल नहीं होता। इसलिए तो जीसस को सूली देनी पड़ी, मंसूर को मार डालना पड़ा, सुकरात को जहर देना पड़ा – क्योंकि धार्मिक व्यक्ति कभी भी परंपरागत नहीं होता । धार्मिक व्यक्ति तो एक महाक्रांति है। वह तो बार-बार सनातन और शाश्वत का उदघोष है। जब भी सनातन और शाश्वत का कोई उदघोष करता है तो परंपरा से बंधे, लकीर के फकीर बहुत घबड़ा जाते हैं । उनको बहुत बेचैनी
कर्म, विचार, भाव—और साक्षी
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