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________________ मैंने सुना है एक वैद्य के संबंध में। खुद उन्होंने मुझसे कहा। एक आदिवासी क्षेत्र में बस्तर के पास वह रहते हैं। तो बस्तर से दूर देहात से एक आदिवासी आया। वे एक गांव में गये हुए थेआदिवासियों का गांव था। वह बीमार था। तो वैद्य के पास लिखने को भी कोई उपाय न था, गांव में न तो फाउंटेन पेन था, न कलम थी, न कागज था। तो पास में पड़े हुए एक खपड़े पर पत्थर के एक टुकड़े से उन्होंने औषधि का नाम लिख दिया और कहा कि बस इसको तू एक महीने भर घोंटकर दूध में मिलाकर पी लेना, सब ठीक हो जायेगा। वह आदमी महीने भर बाद आया, बिलकुल ठीक होकर-स्वस्थ, चंगा! वैद्य ने कहा, दवा काम कर गयी? उसने कहा, गजब की काम कर गयी। अब फिर एक और खपड़े पर लिखकर दे दें। उन्होंने कहा, तेरा मतलब? उसने कहा, खपड़ा तो खतम हो गया , घोलकर पी गये! मगर गजब की दवा थी! अब वह ठीक भी होकर आ गया है! अब वैद्य भी कुछ कहे तो ठीक नहीं। अब कुछ कहना उचित ही नहीं। वे मुझसे कहने लगे, फिर मैंने कुछ नहीं कहा कि जब ठीक ही हो गया, तो जो ठीक कर दे वह दवा। अब इसको और भटकाने में क्या सार है-यह कहना कि पागल, हमने दवा का नाम लिखा था, वह तो तूने खरीदी नहीं! वह प्रिसक्रिप्शन को ही पी गये। मगर काम कर गयी बात। बीमारी झूठी रही होगी। मनोकल्पित रही होगी। मनोवैज्ञानिक कहते हैं, हमारी सौ में से नब्बे बीमारियां मनोकल्पित हैं। और जैसे-जैसे समझ बढ़ती है, ऐसी संभावना है कि निन्यानबे प्रतिशत मनोकल्पित हो सकती हैं। और एक दिन ऐसी भी घटना घट सकती है कि सौ प्रतिशत बीमारियां मनोकल्पित हों। . इसलिए तो दुनिया में इतने चिकित्सा-शास्त्र काम करते हैं। एलोपैथी लो, उससे भी मरीज ठीक हो जाता है; आयुर्वेदिक लो, उससे भी ठीक हो जाता है; होमियोपैथी, उससे भी ठीक हो जाता है; यूनानी, उससे भी ठीक हो जाता है; नेचरोपैथी से भी ठीक हो जाता है; और गंडे-ताबीज भी काम करते हैं। आश्चर्यजनक है, अगर बीमारी वस्तुतः है तो फिर बीमारी को दूर करने का एक विशिष्ट उपाय ही हो सकता है, सब उपाय काम नहीं करेंगे। बीमारी है नहीं। तुम्हें जिस पर भरोसा है, किसी को एलोपैथी पर भरोसा है, काम हो जाता है। बीमारी से ज्यादा डाक्टर का नाम काम करता है। तुमने कभी खयाल किया, जब भी तुम बड़े डाक्टर को दिखाकर लौटते हो, जेब खाली करके, काफी फीस देकर, आधे तो तुम वैसे ही ठीक हो जाते हो। अगर वही डाक्टर मुफ्त प्रिसक्रिप्शन लिख दे तो तुम्हें असर न होगा। डाक्टर की दवा कम काम करती है, चुकायी गयी फीस ज्यादा काम करती है। एक दफा खयाल आ जाये कि डाक्टर बहुत बड़ा, सबसे बड़ा डाक्टर, बस काफी है। तुम पूछते हो, 'अहंकार और चित्त-वृत्तियां साक्षी-भाव में कैसे विसर्जित होती हैं?' विसर्जित नहीं होती हैं। होतीं, तो विसर्जित होतीं। साक्षी-भाव में पता चलता है कि अरे पागल, नाहक भटकता था! अपने ही कल्पना के मृगजाल बिछाए, मृग-तृष्णाएं बनायीं-सब कल्पना थी। विसर्जित नहीं होती हैं; साक्षी में जागकर पता चलता है, थी ही नहीं। 'पूर्ण निरहंकार को उपलब्ध हए बिना क्या समर्पण संभव है?' कर्म, विचार, भाव-और साक्षी । 89 -
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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