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________________ से (साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका) वंदन करवायें, अतः साधु आदि चारों को वंदना करनी चाहिए ॥१४॥ विक्खित्त पराहुत्ते, अ पमत्ते मा कयाइ वंदिज्जा; आहारं नीहारं, कुणमाणे काउ-कामे अ ॥ १५ ॥ ____ गुरु जब व्यग्र (धर्म कार्य की चिंता में व्याकुल) चित्तवाले हों, पराङ्गमुख (सन्मुख बैठे न हों) हों, क्रोध, निद्रा विगेरे प्रमाद में हों, आहार-निहार करते हों, या करने की इच्छा वाले हो, तब कभी भी गुरु वंदन नहीं करने चाहिए ॥१५॥ पसंते आसणत्थे अ, उवसंते उवहिए; अणुन्नवित्तु मेहावी, किईकम्मं पउंजइ ॥ १६ ॥ ___गुरु जब प्रशान्त (अव्यग्र) चित्त वाले हो, आसन पर बिराजमान हो, उपशान्त (क्रोधादि रहित) हो, और वंदन के समय शिष्य को 'छंदेण' इत्यादि वचन कहने के लिए उपस्थित (तत्पर) हो तब (इन ४ प्रसंग पर) बुद्धिमान शिष्य आज्ञा लेकर गुरु को वंदन करे ॥१६॥ पडिक्कमणे सज्झाए, काउस्सग्गा-वराह पाहुणए; आलोयण संवरणे, उत्तमढे य वंदणयं ॥ १७ ॥ प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, काउस्सग्ग, अपराध खमाने, बड़े साधु प्राहुणा पधारे हो उनको, आलोचना, संवर के समय (प्रत्याख्यान के लिए) उत्तम अर्थ में (संलेखनादि के लिये) गुरु को वंदन करना ॥१७॥ २६ भाष्यत्रयम्
SR No.032108
Book TitleBhashya Trayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendrasuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages66
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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