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________________ भावार्थ : मिथ्यात्व गुणस्थानक के अंत में सूक्ष्मत्रिक, आतप और मिथ्यात्व मोहनीय का उच्छेद होता है । सास्वादन गुणस्थानक में नरकानुपूर्वी का अनुदय होने से 111 प्रकृति का उदय होता है । सास्वादन गुणस्थानक के अंत में अनंतानुबंधी चतुष्क, स्थावर, एकेन्द्रिय जाति और विकलेन्द्रिय जाति के उदय का विच्छेद होता है ॥१४॥ मी सयमणुपुवी - Sणुदया मीसोदएण मीसंतो; । चउसयमजए सम्मा - Sणुपुव्विखेवा बिअकसाया ॥१५॥ I भावार्थ : आनुपूर्वी का अनुदय तथा मिश्र मोहनीय का उदय होने से मिश्र गुणस्थानक में उदय में 100 कर्मप्रकृतियाँ होती हैं । वहाँ मिश्र मोहनीय के उदय का उच्छेद होता है । अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानक में सम्यक्त्व मोहनीय और आनुपूर्वी चतुष्क को जोड़ने से 104 प्रकृति का उदय होता है ॥१५॥ मणुतिरिणुपुव्वि विवट्ठ- दुहगअणाइज्जदुगसतरछेओ; । सगसीइ देसि तिरिगइ - आउ निउज्जोअतिकसाया ॥ १६ ॥ भावार्थ : चौथे गुणस्थानक के अंत में अप्रत्याख्यानीय कषाय, मनुष्यानुपूर्वी, तिर्यंचानुपूर्वी, वैक्रिय अष्टक दौर्भाग्य अनादेय द्विक, इन 7 कर्मप्रकृति का विच्छेद होता है । कर्मग्रंथ ३०
SR No.032107
Book TitleKarmgranth 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendrasuri, Manitprabhsagar, Ratnasensuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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