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________________ कषाय (क्रोध-मान-माया-लोभ) और हास्यादि (रति आदि नौ नोकषाय) विषयों के वश बना मूढ़ मन वाला जीव दोनों प्रकार के चारित्र मोहनीय कर्म का बंध करता है । महारंभ, महापरिग्रह में अनुरक्त और रौद्र परिणाम वाला जीव नरक आयुष्य का बंध करता है ॥ ५७ ॥ तिरिआउ गूढहिअओ, सढो ससल्लो तहा मणुस्साऊ, । पयईइ तणुकसाओ, दाणरुई मज्झिम गुणो अ ॥ ५८ ॥ गूढ़ हृदय वाला, शठ एवं सशल्य जीव तिर्यंच आयुष्य का बंध करता है । पतले (अल्प) कषाय वाला, दान की रुचि से युक्त और मध्यम गुणों वाला जीव मनुष्य आयुष्य का बंध करता है ॥ ५८ ॥ अविरयमाई सुराउं, बालतवोऽकामनिज्जरो जयई, । सरलो अगारविल्लो, सुहनामं अन्नहा असुहं ॥ ५९ ॥ __ अविरत (सम्यग्दृष्टि), अज्ञान तपस्वी एवं अकाम निर्जरा करने वाला देव आयुष्य का बंध करता है । सरल स्वभावी और अनासक्त जीव शुभ नामकर्म का बंध करता है और उसके विपरीत आचरण करने वाला अशुभ नामकर्म का बंध करता है ॥ ५९ ॥ गुणपेही मयरहिओ, अज्झयणज्झावणारुई निच्चं, । पकुणइ जिणाइभत्तो, उच्चं नीअं ईअरहा उ ॥६० ॥ कर्मविपाक - प्रथम कर्मग्रंथ
SR No.032107
Book TitleKarmgranth 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendrasuri, Manitprabhsagar, Ratnasensuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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