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________________ ओरालविउव्वाहारयाण-सग-तेअ-कम्मजुत्ताणं, । नव बंधणाणि इअर दु, सहियाणं तिनि तेसिं च ॥ ३७ ॥ स्वयं के साथ, तैजस बंधन नामकर्म और कार्मण बंधन नामकर्म के साथ औदारिक, वैक्रिय और आहारक बंधन नामकर्म का योग करने पर कुल नौ प्रकार के बंधन नामकर्म होते हैं । उन्हीं औदारिक आदि तीन बंधनों को तैजस एवं कार्मण के साथ जोड़ने से अन्य तीन बंधन नाम कर्म होते हैं तथा तैजस एवं कार्मण के भी तीन भेद मिलाने से कुल पन्द्रह बंधन नाम कर्म होते हैं ॥३७॥ संघयणमट्ठिनिचओ, तं छद्धा वज्जरिसहनारायं, । तह रिसहनारायं, नारायं अद्धनारायं ॥ ३८ ॥ अस्थि-रचना की मजबूती और शिथिलता को संघयण कहते हैं। संघयण छह प्रकार के हैं - (१) वज्रऋषभनाराच संघयण (२) ऋषभनाराच संघयण (३) नाराच संघयण (४) अर्द्धनाराच संघयण (५) कीलिका संघयण (६) सेवार्त संघयण ॥३८॥ कीलिय छेवढं ईह, रिसहो पट्टो अ कीलिआ वज्जं, । उभओ मक्कडबंधो - नारायं ईममुरालंगे ॥ ३९ ॥ कर्मविपाक - प्रथम कर्मग्रंथ
SR No.032107
Book TitleKarmgranth 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendrasuri, Manitprabhsagar, Ratnasensuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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