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________________ तो एक सौ तीन भेद होते हैं । वे भी सत्ता में लिये जाते हैं । बंधन और संघातन की गणना शरीर नामकर्म में कर ली जाये और वर्णचतुष्क सामान्य रूप से लिये जाएँ तो सड़सठ भेद होते हैं ॥३१॥ इअ सत्तट्ठी बंधोदए अ न य सम्म - मीसया बंधे, । बंधु सत्ता, वीस - दुवीसट्ठ वण्णसयं ॥ ३२ ॥ इस प्रकार नाम कर्म की सड़सठ प्रकृतियाँ बंध और उदय में होती हैं। मोहनीय कर्म की दो प्रकृतियाँ, सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रबंध में नहीं होती हैं । बंध, उदय और सत्ता में क्रमश: एक सौ बीस, एक सौ बाईस और एक सौ अट्ठावन प्रकृतियाँ होती हैं ॥३२॥ निरयतिरि-नरसुरगई, इगबिअतिअ - चउपणिदि जाईओ, । ओरालविउव्वाहारग - तेअकम्मण पणसरीरा ॥ ३३ ॥ गति नाम कर्म के चार भेद इस प्रकार जानने चाहियेनरक गति, तिर्यंच गति, मनुष्य गति, देव गति । जाति नाम कर्म पांच प्रकार के होते हैं- एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, पंचेन्द्रिय जाति । शरीर नामकर्म के पाँच प्रकार होते हैं - औदारिक शरीर, वैक्रिय शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर और कार्मण शरीर ॥३३॥ कर्मविपाक - प्रथम कर्मग्रंथ १३
SR No.032107
Book TitleKarmgranth 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendrasuri, Manitprabhsagar, Ratnasensuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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