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________________ जल-रेणु-पुढवी-पव्वय-राईसरिसो चउव्विहो कोहो, । तिणिसलया-कट्ठट्ठिअ - सेलत्थंभोवमो माणो ॥ १९ ॥ संज्वलन, प्रत्याख्यानी, अप्रत्याख्यानी एवं अनंतानुबंधी क्रोधकषाय अनुक्रम से पानी की, धूल की, पृथ्वी की और पर्वत की रेखा के समान जानने चाहिये । उपरोक्त संज्वलनादि चारों मान कषाय क्रमशः नेतर की सोटी, लकड़ी, अस्थि एवं शैल के स्तंभ के समान जानना चाहिये ॥१९॥ मायावलेहि-गोमत्ति - मिंढसिंग घणवंसिमूल-समा, । लोहो हलिदखंजण, कद्दमकिमिरागसामाणो (सारिच्छो)।२०। संज्वलनादि चारों प्रकार की माया क्रमशः लकड़ी की छाल, गोमूत्रिका, घेटे के श्रृंग (सींग) एवं मजबूत बांस के मूल के समान जाननी चाहिये । इसी प्रकार चार प्रकार के लोभ अनुक्रम से हल्दी, काजल, कीचड़ एवं कीरमजी के रंग के समान जानना चाहिये ॥२०॥ जस्सुदया होइ जीए, हास रइ अरइ सोग भय कुच्छा, । सनिमित्तमन्नहा वा, तं इह हासाइमोहणियं ॥ २१ ॥ जिसके उदय से जीव को निमित्त सहित अथवा निमित्त रहित हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा उत्पन्न होती है, उन्हें अनुक्रम से हास्य मोहनीय, रति मोहनीय, अरति मोहनीय, शोक मोहनीय, भय मोहनीय और जुगुप्सा मोहनीय कर्म कहते हैं ॥२१॥ कर्मविपाक - प्रथम कर्मग्रंथ
SR No.032107
Book TitleKarmgranth 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendrasuri, Manitprabhsagar, Ratnasensuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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