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________________ जोयणसयमुच्चिट्ठा, कणयमया सिहरिचुल्लहिमवंता । रुप्पि-महाहिमवंता, दुसउच्चा रुप्पकणयमया ॥२७॥ चत्तारि जोयण सए, उच्चिट्ठो निसढ नीलवंतो अ । निसढो तवणिज्जमओ, वेरुलिओ नीलवंतगिरि ॥२८॥ सव्वेवि पव्वयवरा, समयखित्तम्मि मंदरविहूणा । धरणीतले उवगाढा, उस्सेह चउत्थ भायम्मि ॥२९॥ गाथार्थ : शिखरी पर्वत और चुल्लहिमवंत पर्वत सौ योजन ऊँचाई में तथा स्वर्णमय है, रुक्मिपर्वत और महाहिमवन्त पर्वत ऊँचाई में दो सौ योजन के हैं तथा क्रम से चांदीमय एवं सुवर्णमय हैं, निषधपर्वत और नीलवंत पर्वत ऊँचाई में चार सौ योजन के हैं, तथा निषध पर्वत रक्तस्वर्णमय और नीलवन्त पर्वत वैडूर्यरत्नमय हैं । समयक्षेत्र में सुमेरु पर्वत के बिना सभी श्रेष्ठ पर्वत पृथ्वी के अन्दर ऊँचाई के चौथे भाग में गहरे स्थित हैं । खंडाइ गाहाहिं, दसहिं दारेहिं जंबूदीवस्स । संघयणी सम्मत्ता, रइया हरिभद्दसूरिहिं ॥३०॥ गाथार्थ : खंडादि गाथाओं से निर्दिष्ट दस द्वारों के द्वारा जम्बूद्वीप की इस संग्रहणी की आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी ने रचना की और यहाँ समाप्त हुई । दंडक-लघुसंग्रहणी
SR No.032106
Book TitleDandak Laghu Sangrahani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages26
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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