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________________ चउतीस वियड्ढेसु, विज्जुप्पह निसढ नीलवंतेसु । तह मालवंत सुरगिरि, नव नव कूडाइं पत्तेयं ॥१४॥ गाथार्थ : चौंतीस वेताढ्य विद्युत्प्रभ, निषध, नीलवन्त तथा मालवन्त और सुमेरु इन एक एक पर्वत पर नव नव कूट हैं। हिमसिहरिसु इक्कारस, इय इगसट्ठीगिरिसु कूडाणं । एगत्ते सव्वधणं, सयचउरो सत्तसट्ठी य ॥१५॥ गाथार्थ : हिमवन्त और शिखरी पर्वत पर ग्यारहग्यारह कूट हैं इस प्रकार इकसठ पर्वतों के कूटों की संख्याओं को एकत्रित करने से कुल चार सौ सड़सठ कूट होते हैं। चउ सत्त अट्ठ नवगे, गारसकूडेहिं गुणह जह संखं । सोलस दु दु गुणयालं, दुवे य सगसट्ठि सयचउरो ॥१६॥ गाथार्थ : अनुक्रम से सोलह को चार से गुणा करने पर ६४, दो पर्वतों के सात-सात मिलकर १४, आठ-आठ मिलकर १६, उनचालिस पर्वतों के नव नव गिनने से ३५१ और दो पर्वतों के ग्यारह-ग्यारह मिलाकर २२ कूटों की संख्या ६४, १४, १६, ३५१, २२ इस प्रकार ४६७ होती है। चउतीसं विजएसुं, उसहकूडा अट्ठ मेरुजंबुम्मि । अट्ठ य देवकुराए, हरिकूड हरिस्सहे सट्ठी ॥१७॥ दंडक-लघुसंग्रहणी
SR No.032106
Book TitleDandak Laghu Sangrahani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages26
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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