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________________ बिना आर पार के (अनादि अनन्त) संसाररुपी भयंकर समुद्र में धर्म को प्राप्त किये बिना जीव ने इस प्रकार (प्राणवियोग) अनन्त वार प्राप्त किया है ॥ ४४ ॥ तह चउरासी लक्खा, संखाजोणीण होइ जीवाणं,। पुढवाइणं चउण्हं, पत्तेयं सत्तसत्तेव ॥ ४५ ॥ तथा जीवों की योनियों की संख्या चौरासी लाख है। पृथ्वीकाय आदि चारों की प्रत्येक की (योनि संख्या) सात सात (लाख) है ॥ ४५ ॥ दस पत्तेय-तरूणं, चउदस लक्खा हवंति इयरेसु,। विगलिंदिएसु दो दो, चउरो पंचिंदितिरियाणं ॥ ४६ ॥ चउरो चउरो नारय-सुरेसु मणुआण चउदस हवंति, । संपिंडिया य सव्वे, चुलसी लक्खा उ जोणीणं ॥ ४७ ॥ प्रत्येक वनस्पतिकाय तथा साधारण वनस्पतिकाय (जीवों) की योनियाँ दस और चौदह लाख हैं । विकलेन्द्रिय (दो इन्द्रिय, तेइन्द्रय, चतुरिद्रिय) जीवों की दो-दो, दो पंचेन्द्रिय तिर्यंचो की चार, नारक और देवों की चार चार तथा मनुष्यों की चौदह लाख योनियाँ होती हैं । सब मिलाकर चौरासी लाख योनियाँ होती हैं ॥४६-४७॥ सिद्धाणं नत्थि देहो, न आउकम्मं न पाण-जोणीओ,। साइ अणंता तेसिं, ठिई जिणिंदागमे भणिआ ॥४८॥ जीवविचार
SR No.032105
Book TitleJeevvichar Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad Jain
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages34
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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