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________________ जलयर-उर भुयगाणं, परमाऊ होई पुव्वकोडीओ,। पक्खीणं पुण भणिओ, असंखभागो य पलियस्स ॥३७॥ जलचर, उरपरिसर्प (तथा) भुजपरिसर्प जीवों का उत्कृष्ट आयुष्य करोड़ पूर्व की है, एवं पक्षियों की पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कहा है ॥ ३७ ॥ सव्वे सुहमा साहारणा य समुच्छिमा मणुस्सा य,। उक्कोसजहन्नेणं, अंतमुहुत्तं चिय जियंति ॥ ३८ ॥ सभी सूक्ष्मजीव, साधारण वनस्पतिकाय और संम्मूर्छिम मनुष्य उत्कृष्ट से तथा जधन्य से अन्तर्मुहर्त मात्र जीते हैं ॥ ३८ ॥ ओगाहणाऊ-माणं, एवं संखेवओ, समक्खायं,।। जे पुण इत्थ विसेसा, विसेस-सुत्ताउ ते नेया ॥ ३९ ॥ इस प्रकार अवगाहना और आयुष्य का प्रमाण संक्षेप में कहा गया है। इसमें जो विशेष है सो विशेष सूत्रोंसे जानें ॥ ३९ ॥ एगिदिया य सव्वे, असंख-उस्सप्पिणी सकायम्मि । उववज्जंति चयंति य, अणंतकाया अणंताओ ॥ ४० ॥ सभी एकेन्द्रिय जीव तथा अनन्तकाय जीव अपनी काया में (एक प्रकार के जीव भेद) (क्रमशः) असंख्य और अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी तक उत्पन्न होते एवं मरते हैं ॥ ४० ॥ जीवविचार
SR No.032105
Book TitleJeevvichar Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad Jain
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages34
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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