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________________ ऊपर अकाल में अरिष्ट को उत्पन्न करने वाली महादुःखदायक रज की वृष्टि की। उस रज के प्रवाह ने चंद्र को राहू एवं सूर्य को दुर्दिन की भांति प्रभु के सर्व अंगों को ढक दिया। उस रज से उसने सब तरफ से प्रभु के शरीर के द्वारों को ऐसे भरा कि जिससे प्रभु श्वासोश्वस लेने में अशक्त हो गये। तथापि जगद्गुरु एक तिलमात्र भी ध्यान से चलित हुए नहीं।" चाहे जितने शक्तिमान् गजेन्द्रों से भी क्या कुलगिरि चलित होवे ?' तब रज को दूर करके उस दुष्ट ने प्रभु के सर्व अंग को पीड़ित करने वाली वज्रमुखी चींटियाँ उत्पन्न की। वे चींटियाँ प्रभु के अंगों में एक तरफ से घुसकर स्वेच्छा से दूसरी ओर आर-पार वस्त्र में सुई निकले वैसे निकलकर तीक्ष्ण मुखाग्र से प्रभु के अंगों को बींधने लगी। निर्भागियों की इच्छाएँ निष्फल होती है, वैसे ही जब चींटियों का उपसर्ग भी निष्फल गया, तब उसने प्रचंड पारषदों (डांसो) की विकुर्वणा की। “दुरात्मा पुरुषों के अपकृत्यों का अंत नहीं होता।" उनके एक-एक प्रहार से निकलने वाले गाय के दूध जैसे रुधिर से प्रभु निर्झरणावाले गिरि के जैसे दिखने लगे। जब उनसे भी प्रभु क्षुब्ध नहीं हुए, तब उसने प्रचंड चोंचवाली दुर्निवार घीमेलों की विकुर्वणा की। प्रभु के शरीर के साथ ही उठी हुई रोमपंक्ति हो, ऐसी दिखाई देने लगी। इससे भी योगसाधना के ज्ञानी जगद्गुरु चलित नहीं हुए। इससे प्रभु को ध्यान से विचलित करने के निश्चय वाले उस दुष्ट ने बिच्छुओं की विकुर्वणा की। वे प्रलयकाल की अग्नि के तिनकों जैसे और तप्त भाले के समान अपने पूंछ के कांटों से भगवंत के शरीर को भेदने लगे। (गा. 186 से 200) उससे भी प्रभु आकुलित नहीं हुए। तब दुष्ट संकल्पी उसने बहु दांतवाले नकुल (नेवले) विकुर्वित किए। खी! खी! ऐसे विरस शब्द करते हुए वे अपनी उग्र दाढ़ों से भगवंत के शरीर में से मांस तोड़ तोड़ कर अलग करने लगे। इससे भी वह कृतार्थ नहीं हुआ। इसलिए यमराज के भुजदंड जैसे भयंकर और बड़े बड़े फण वाले सर्पो को उसने महाकोप से उत्पन्न किया। विशाल वृक्ष को जैसे कोंचे की लता लिपट जाती है वैसे वे सर्प महावीर प्रभु को पैरों से मस्तक तक लिपट गए। फिर वे अपने फणों को मानो वे फटे जा रहे हो, इतने जोर से प्रभु के ऊपर उन फणों से प्रहार करने लगे एवं दाढ़ें टूट जाए इतनी जोर से अपनी दाढ़ों से प्रभु को डंसने लगे। जब अधिक जहर वमन करके वे रस्सी के समान लटके रहे तब उस दुष्ट ने वज्र जैसे दांतवाले चूहे उत्पन्न कर दिये, जो कि नखों त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व) 85
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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