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________________ अपने स्थान पर चले गये। प्रभु नाव में से उतर कर विधिपूर्वक ईर्यापथिकी प्रतिक्रमण करके वहाँ से अन्य दिशा की ओर प्रस्थान कर गये। (गा. 341 से 347) जिसमें सूक्ष्म तथा आर्द्र रेत है, ऐसी गंगानदी के तट पर चक्रादि के लंछन वाली प्रभु की चरण पंक्ति पृथ्वी पर आभूषण रूप से स्फुटरीति से अंकित हो रही थी। इतने में एक सामुद्रिक लक्षण का ज्ञाता पुष्प नामका पुरुष उस चरण पंक्ति को देखकर विचार करने लगा कि, "इस रास्ते से होकर कोई चक्रवर्ती एकाकी ही निकले लगते है।" अद्यापि उनको राज्य मिला नहीं लगता है अथवा किसी ने छल से उनके राज्य का हरण कर लिया है। मेरी धारणा यह है कि वे अभी ही इस मार्ग से गये हैं, अतः मैं जाकर उनकी सेवा करूं, क्योंकि वे भी सेवक को चाहते होंगे। ऐसी अवस्था में सेवित वे चक्रवर्ती अवश्य ही फलदायक होंगे। “सेव्य पुरुष की सेवा करने का अवसर पुण्य से ही प्राप्त होता है। ऐसा विचार कर वह उन पगलों का अनुकरण कर चलने लगा। आगे जाने पर स्थूणाक नामक गांव के पास में अशोकवृक्ष के नीचे प्रतिमाधारी प्रभु को उसने देखा। उनके हृदय पर श्रीवत्स का लांछन था, मस्तक पर मुगट का चिह्न था, दोनों भुजाओं पर चक्रादिक के लांछन थे। दोनों हाथ शेषनाग की भांति लंबे थे एवं नाभिमंडल दक्षिणावर्त वाला, गंभीर एवं विस्तीर्ण था। प्रभु के शरीर पर ऐसे लोकोत्तर चिह्न उसे दृष्टिगत हुए। यह देख पुष्प सोचने लगा कि 'चरण के लक्षणों से तो चक्रवर्ती भी सूचित होते हैं, ऐसे लक्षणों के होने पर भी यह तो भिक्षुक है, इससे मुझे आश्चर्य होता है।' इसलिए भिक्षुक पर अच्छी आशा रखने वाला मुझे और मेरे शास्त्र के श्रम को धिक्कार है, विश्व को ठगने के लिए और अपना कौतुक पूर्ण करने के लिए कोई अनाप्त (अहितकारी) पुरुष ने ही ये शास्त्र रचे हो, ऐसा लगता है। मरुभूमि में मरीचिका के जल को देखकर मृग दौड़ता है वैसे ही उनके ऊपर आशा रखकर मैं वृथा ही दौड़ कर आया।" इस प्रकार विचार करके उस पुष्प के हृदय में अत्यन्त खेद हुआ। उसी समय शक्रेन्द्र को स्वर्ग में बैठे-बैठे ही विचार हुआ कि 'महावीर प्रभु कहाँ विचर रहे होंगे? अवधिज्ञान के उपयोग से स्थूणाक गांव में प्रभु को स्थित देखा और पुष्प नैमित्तिक को खेद से अपने शास्त्रों के दूषण देते देखा, तब इंद्र शीघ्र ही वहाँ आए और उस पुष्प नैमित्तिक के देखते हुए प्रतिमाधारी प्रभु को विपुल समृद्धि त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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