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________________ इधर वह ब्राह्मण जो प्रभु के पीछे पीछे फिर रहा था, वह तेरह महिनों बाद प्रभु को वंदन करके अपने गांव की तरफ चल दिया। हर्षित चित्त से अपने गांव पहुँचकर वह अर्धवस्त्र को लेकर उस बुनकर के पास गया और वह वस्त्र दिया। बुनकर ने उसके दोनों भागों को कोई न जान सके इस प्रकार जोड़ दिया। उसे बेचने पर उसे एक लाख दीनार प्राप्त हुए। वह उन दोनों जनों ने बंधु के समान आधा आधा बांट लिया। (गा. 223 से 224) पवन की भांति अस्खलित गति से विहार करते हुए वीर प्रभु भगवान श्वेतांबी नगरी की ओर चल दिये। मार्ग में गोपाल पुत्रों ने कहा कि 'हे देवार्य! यह मार्ग श्वेताम्बी नगरी की ओर तो जाता है, उसके बीच में कनकखल नामक तापसों का आश्रम आता है। वहाँ अभी एक भयंकर दृष्टिविष सर्प रहता है। इससे वहाँ पक्षियों का भी संचरण नहीं है। मात्र वायु का ही वहाँ संचार है। इसलिए इस सरल मार्ग को छोड़कर अन्य इस वक्र मार्ग पर आप गमन करें। क्योंकि जिससे कान ही टूट जाय ऐसा सुवर्ण का आभूषण किस काम का ? प्रभु ने ज्ञान द्वारा उस सर्प को पहचाना। (गा. 225 से 228) यह सर्प पूर्वजन्म में तपस्वी साधु था। एक बार वह पारणे के लिए उपाश्रय से बाहर गया। मार्ग में उसके पाँव के नीचे एक मेंढ़की कुचल गई। यह देखकर उसकी आलोचना करने के लिए एक क्षुल्लक ने वह मेढ़की बताई, तो वह देखकर उल्टा वह लोगों के द्वारा मारी हुई अन्य मेंढकियाँ बताने लगा। और बोला-अरे क्षुल्लक! क्या इन सभी मेंढकियों को भी मैनें मार डाला। यह सुनकर क्षुल्लक ने मौन धारण का लिया। शुद्ध बुद्धि से उसने विचार किया कि 'ये महानुभाव है, इससे सायंकाल में इसकी आलोचना करेंगे। बाद में आवश्यक (प्रतिक्रमण) करते भी जब आलोचना किये बिना वे साधु बैठ गये, तब क्षुल्लक के सोचा कि 'ये मेढ़की की विराधना भूल गये होंगे। अतः उसने उनको याद कराया कि 'आर्य! आप उस मेढ़की की आलोचना क्यों नहीं कर रहे हैं ? यह सुनकर वे क्षपक कुपित होकर खड़े होकर उस क्षुल्लक को मारने के लिए दौड़े। क्रोधांध होकर चलते हुए बीच में एक स्तंभ के साथ सिर टकराने से वे साधु वहीं पर मरण शरण हो गए। साधु जीवन की विराधना करने से वे ज्योतिष त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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