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________________ कोई कार्पटिक विश्रांत होकर इस यक्ष के मंदिर में रात्रिनिवास करता है, उसे वह शूलपाणि कृतान्त की तरह मार डालता है। यहाँ के लोग और इँद्रशर्मा पुजारी भी दिन में यहाँ रहकर सांयकाल में अपने अपने घरों में चले जाते हैं। इसलिए आपका भी यहाँ रहना योग्य नहीं हैं।' (गा. 93 से 116) इस प्रकार कहकर उस गांव के लोगों ने वीरप्रभु को अन्य स्थान रहने के लिए बताया। परंतु प्रभु ने वह स्वीकार न करके उस यक्ष के स्थान की ही मांग की। तब गांव के लोगों ने आज्ञा दी। बोध के लिए योग्य ऐसे उस व्यंतर को जानते हुए प्रभु यक्ष के उस स्थान में एक कोने में प्रतिमा धारण करके खड़े रहे। इंद्रशर्मा पुजारी ने सायंकाल धूप करके अन्य मुसाफिरों को वहाँ से निकाल कर भगवंत को भी कहा- 'हे देव! आप भी इस स्थान से बाहर निकल जाएँ, क्योंकि यह व्यंतर क्रूर होने से आपको मरणांत कष्ट देगा। तथापि प्रभु तो मौन धारण करके वहाँ ही स्थित रहे। उस व्यंतर ने विचार किया कि अहो! यह कोई मरने का इच्छुक मेरे स्थान में आया लगता है, क्योंकि गांव के लोग और मेरे पुजारी ने बारम्बार निषेध किया, तो भी यह गर्विष्ट मुनि यहाँ पर ही रात्रिवास करके रहा है, तो अब मैं उसके गर्व को खंडित करूँ। पुजारी तो समय होने पर वहाँ से चला गया एवं सूर्य अस्त हो गया। तब जहाँ प्रभु कायोत्सर्ग में स्थित थे, वहाँ उस व्यंतर ने अट्टहास्य किया। चतुर्दिक् प्रसरते अतिरौद्र अट्टहास्य के शब्दों से मानो आकाश ही फूट गया हो और नक्षत्रमंडल टूट पड़ा हो ऐसा लगने लगा। यह सुनकर गांव के लोग परस्पर कहने लगे कि (गा. 117 से 124) अवश्य ही उन मुनि को अभी वह व्यंतर मार डालेगा। उस समय पार्श्व नाथ जी के साधुओं में घूमने वाला उत्पल नामक परिव्राजक जो कि निमित्तक ज्ञान में पंडित था, वह वहाँ आया उसने लोगों से उन महावीर देवार्य का वृत्तांत सुना। इससे 'चाहे वो अंतिम तीर्थंकर हो! ऐसा सोचकर उसके हृदय में धीरज रही नहीं अर्थात् उसे बहुत ही चिंता होने लगी। इधर उस व्यंतर ने महाभयंकर अट्टहास्य किया। किन्तु उससे प्रभु को जरा भी क्षोभ नहीं हुआ, तो उस व्यंतर ने विकराल हाथी के रूप की विकुर्वणा की। प्रभु ने उस हाथी के रूप की भी अवगणना की। तब उसने भूमि और आकाश के मानदंड जैसा पिशाच का रूप 40 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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