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________________ वर्द्धमान को देने के लिए मंत्रियों के साथ वहाँ भेजी। मंत्रियों ने क्षत्रियकुंड नगर में आकर सिद्धार्थ राजा को नमन करके निवेदन किया कि 'हमारे स्वामी ने अपनी पुत्री को आपके पुत्र को लिए हमारे साथ भेजा है। हमारे स्वामी पहले से ही आपके सेवक हैं, इससे यह संबंध और भी विशेष होगा । हम पर प्रसन्न होकर अनुग्रह करिये।' सिद्धार्थ राजा ने कहा कि- 'मुझे एवं त्रिशला रानी को कुमार के विवाहोत्सव का खूब मनोरथ है, परंतु यह कुमार तो जन्म से ही संसार से विरक्त है, यद्यपि उसके समक्ष विवाहादिक प्रयोजन की बात भी हम कर नहीं सकते, तथापि तुम्हारे आग्रह से अनेक वचन की युक्तियों से उनके मित्र के द्वारा विवाह की वार्ता हम आज ही उसे कहलायेंगे। इस प्रकार कहकर राजा सिद्धार्थ ने त्रिशलादेवी को पूछकर प्रभु के बुद्धिमान मित्रों को विवाह की स्वीकृति हेतु प्रभु के पास भेजा। उन्होंने प्रभु के पास जाकर सविनय नमस्कार करके उनको सिद्धार्थ राजा की आज्ञा कह सुनाई । प्रभु ने फरमाया- 'तुम निरन्तर मेरे समीप रहते हो, गृहवास से पराङ्मुख ऐसे मेरे भावों को जानते हो ।' वे बोले - "हे कुमार! हम आपको संसार से उद्विग्न हैं, ऐसा जानते हैं। तुमको माता-पिता की आज्ञा अलंघ्य है, ऐसा भी मानते हैं । फिर तुम हमारी प्रणय याचना की भी अवमानना करते नहीं हो, तो आज एक साथ सबकी अवमानना कैसे करते हो ?” भगवन्त बोले- “ अरे मोहग्रस्त मित्रों ! तुम्हारा ऐसा आग्रह क्यों है ? क्योंकि स्त्री आदि का परिग्रह तो भवभ्रमण का ही कारण है । फिर इस 'मेरे माता पिता के जीवित रहते उनको वियोग का दुःख न हो हेतु से ही मैं दीक्षा लेने में उत्सुक होने पर भी अभी दीक्षा नहीं लें रहा ।" इस प्रकार प्रभु कह रहे थे, कि इतने में महाराज की आज्ञा से त्रिशला देवी स्वयं ही वहाँ आयीं । प्रभु तुरन्त ही खड़े हुए और गौरव से माता! आप पधारे वह तो अच्छा हुआ। परंतु आपका यहाँ आने का क्या कारण है, मुझे बुलाया होता तो मैं आपकी आज्ञा से तुरन्त ही आपके पास आ जाता । तब त्रिशला देवी बोले हे पुत्र! अनेक प्रकार के पुण्य उदय के कारणभूत तुम जो हमारे घर में आए हो, यह कोई हमारा अल्यपुण्य नहीं ? तुम्हारा अवलोकन करने पर तीन जगत को भी तृप्ति नहीं होती, तो तुम्हारे दर्शन रूप महाद्रव्य के द्वारा धनिक ऐसे हमको कैसे तृप्ति हो ? हे पुत्र ! हम जानते हैं कि, तुम संसार वास से विरक्त हो, इसके उपरान्त भी हम पर अनुकम्पा करके रह रहे हो । हे विनय के स्थानरूप ! यद्यपि तुमने अपनी मनोवृत्ति बाधित करके यह दुष्कर कार्य किया है, तथापि इतने त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व) 28
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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