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________________ द्वितीय सर्ग श्री महावीर जन्म और दीक्षा महोत्सव इस जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में ब्राह्मणकुंड नामक ब्राह्मण लोगों का एक गांव था। वहाँ कोडालस नामक कुल में उत्पन्न हुआ ऋषभदत्त नामका एक ब्राह्मण रहता था, उसके देवानंदा नामकी जालंधर कुल की भार्या थी । आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी को चंद्र के हस्तोत्तर (उत्तराषाढ़ा) नक्षत्र में आने पर नंदन मुनि का जीव दसवें देवलोक से च्यवकर देवानंदा की कुक्षि में अवतरा। उस समय सुखपूर्वक सोती हुई देवानंदा ने चौदह महास्वप्नों का अवलोकन किया। प्रातः काल में उठकर उसने अपने स्वामी को ज्ञात कराया । ऋषभदत्त ने उस संबंध में विचार करके कहा कि 'इन स्वप्नों के दर्शन से तुम्हारे चारों वेदों में पारंगत एवं परम निष्ठावाला पुत्र होगा। इसमें जरा भी शंका नहीं है । मानों कल्पवृक्ष आया हो वैसे प्रभु जब से देवानंदा की कुक्षि में आए, तब से उस ब्राह्मण को विपुल समृद्धि प्राप्त हुई । (गा. 1 से 6) देवानंदा के गर्भ में प्रभु के आने के पश्चात् बियासी दिन व्यतीत हो जाने पर सौधर्म देवलोक के इंद्र का सिंहासन कंपायमान हुआ । अवधिज्ञान से प्रभु का देवानंदा की कुक्षि में अवतरण जानकर शक्रेन्द्र सिंहासन से उठकर नमस्कार करके इस प्रकार चिंतन करने लगे कि "तीन जगत् के गुरु अर्हत् परमात्मा कभी भी तुच्छ कुल में, दरिद्रकुल में या - भिक्षुक कुल में उत्पन्न नहीं होते । परंतु पुरुष में सिंह के समान वे तो सीप में मोती की भांति इक्ष्वाकु आदि क्षत्रीय वंश ही उत्पन्न होते हैं। ये प्रभु तो नीच कुल में उत्पन्न हुए, यह तो असंगत हुआ है। पूर्वबद्ध कर्म को अन्यथा करने में अर्हन्त प्रभु भी समर्थ नहीं है । इन प्रभु ने मरिची के भव में कुल का मद किया था, इससे जो नीच गोत्र कर्म का उपार्जन त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व) 20
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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