SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 321
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लिए कुणिक भी समवसरण में आया। प्रभु को नमन करके योग्य स्थान में बैठने के पश्चात् अवसर को देखकर मस्तक परा अंजली जोड़कर उसने प्रभु जी से पूछा कि जो जन्म से मृत्यु पर्यन्त भोगो को छोड़ते नहीं है, ऐसे चक्रवर्ती अंत में किस गति में जाते हैं ? प्रभु ने फरमाया वे सातवी नरक में जाते हैं।' कृणिक ने पुनः पूछा हे प्रभु! मेरी क्या गति होगी? प्रभु ने कहा- 'तू मरकर छठी नरक में जाएगा। तब कुणिक बोला मैं सातवीं नरक में क्यों नहीं जाऊंगा? तब प्रभु ने कहा तू चक्रवर्ती नहीं है।" स्वयं धर्म के योग्य एवं उपदेशक रूप में प्रभु महावीर होने पर भी कुणिक ने पूछा, 'भगवन् मैं चक्रवर्ती कैसे नहीं हूँ? मेरे भी चक्रवर्ती के समान चतुरंग सेना है। प्रभु ने कहा तेरे पास चक्रादि रत्न नहीं है। एक भी रत्न कम हो, तब तक चक्रवर्ती नाम होना भी दुर्घट है। (गा. 405 से 414) प्रभु के पास ऐसा श्रवण करके अहंकार के पर्वत पर चंपापति वहाँ से खड़ा हुआ और अपनी नगरी में आकर शीघ्र ही लोहे के एकेन्द्रिय आदि सात महारत्न कराये। साथ ही व्यर्थ मनोरथों कदर्थित हुए उसने पद्मावती को स्त्रीरत्न मानकर हस्ती आदि अन्य पाँच इन्द्रिय वाले छः रत्न भी बनवा लिये। फिर सम्पूर्ण भरतक्षेत्र को साधने के लिए महापराक्रमवाले कुणिक अनेक देशों को साधता साधता वैताढ्य गिरि की तमिस्रा गुफा के पास सैन्य सहित आया। दुर्दैव से दूषित हुआ और अपनी आत्मा अनजान होते हुए गुहाद्वार के कपाट पर दंड द्वारा तीन बार ताड़न किया। इसलिए वह गुहाद्वार का रक्षक कृतमाल देव बोला कि यह मरने को कौन तैयार हुआ है ? कुणिक बोला 'अरे! मैं विजय की इच्छा से आया हूँ, क्या तू मुझे नहीं पहचानता ? मैं अशोकचंद्र नामक चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ हूँ। कृतमाल देव बोला – 'चक्रवर्ती तो बारह हो चुके हैं, तो अब अप्रार्थित (मृत्यु) की प्रार्थना करने वाला तू कौन है ? तेरी बुद्धि की स्वस्ति हो। कुणिक बोला 'अतिपुण्यबल से मैं तेरहवाँ चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ हूँ। पुण्य से क्या दुर्लभ है? अरे कृतमालदेव! तू मेरा पराक्रम जानता नहीं है, नहीं तो इस गुहा का द्वार उघाड़े बिना नहीं रहे। इस प्रकार देवदोष से ग्रहण किये जैसे असंबद्ध भाषण करने वाले उस कुणिक को कृतमाल देव ने रोष से तत्काल जलाकर भस्म कर डाला। इसी प्रकार अशोकचंद्र (कुणिक) राजा मृत्यु के पश्चात् छठी नरक में गया। “ अरिहंतो के वचन कभी भी अन्यथा नहीं होते।" (गा. 415 से 425) 308 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy