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________________ रथी से रथी और पत्ति से पत्ति युद्ध करने लगे । भालाओं के घात से गिरते हाथियों और घोडे द्वारा सम्पूर्ण पृथ्वी, पर्वत और शिलाएँ वाली हो, ऐसी दृष्टिगत होने लगी । भग्न रथ और हनन किये हुए वीरों द्वारा रुधिर की नदियाँ जमानुष और बेटोवाली हो, वैसी दिखने लगी। उस समय रणागंण में वीरकंजुरों के स्फुरायमान हुए खड्गों से मानो असिपत्र का वन प्रकट हुआ दिखाई देने लगा । खड्गों से कटकर उछलते शूरवीरों के कर कमल लेकर मांसभक्षी राक्षस कर्ण के आभूषण का कौतुक पूर्ण करते थे एवं सुभटों के मस्तक खड्ग धारा से अलग करते हुंकार करके मानो अपने धड़ से लड़ने की आज्ञा करते हों, ऐसा ज्ञात होता था । इस प्रकार समुद्र का जहाज द्वारा अवगाहन करते हों, वैसे कालकुमार सागरव्यूह का अवगाहन करके उसका पार पाया हो वैसे चेटक राजा के पास आया। जब काल जैसा कालकुमार अकाल में अपने पास में आया तब चेटकराजा ने विचार किया कि, वज्र के समान इस कुमार को कोई भी स्खलित कर सका नहीं, इसलिए यह सन्मुख आते हुए काल कुमार कि जो रणमय सागर में मंदरगिरि जैसा है, उसका मैं इस दिव्य बाण से क्षण में निग्रह करूं, ऐसा विचार करके प्राणरूप धन को चोरने वाला एक बाण छोड़कर चेटक ने काल कुमार को तत्काल ही पंचत्व में पहुँचा दिया। उस समय कालकुमार की भांति सूर्य भी अस्त हो गया और चंपापति का सैन्य जैसे शोकग्रस्त हुआ वैसे सम्पूर्ण जगत् भी अंधकार से ग्रस्त हो गया। उस रात्रि में चंपापति का सैन्य युद्ध छोड़ देने पर भी जागृत ही रहा । क्योंकि अभक्त स्त्रीवाले पुरुष के समान सिर पर वैर वाले पुरुष को निद्रा कहाँ से आवे ? चेटकराजा के सैन्य में उसके सुभटों ने वीरजयंती करके वाजिंत्रों के नाद द्वारा आनंद में निशा निर्गमन की । (गा. 226 से 239) दूसरे दिन चंपापति कुणिक के सेनापति के पद पर काल के लघु भ्राता महाकाल का अभिषेक किया। उसे भी चेटक राजा ने काल के सदृश ही मार डाला। इस प्रकार सेनापति के पद पर आए श्रेणिक राजा के अन्य आठ कुमारों को भी चेटक राजा के एक एक दिन में ही मार डाला । इसी भांति जब अपने समान काल आदि दस कुमारों को मरण देखकर कुणिक ने विचार किया कि 'देवता के प्रासाद से एक बाण के द्वारा ही चेटक राजा सर्व को जीत लेता है, तो उसे कोटि मनुष्यों से भी जीतना शक्य नहीं है । मुझे धिक्कार है कि, चेटक त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व ) 297
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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