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________________ आज्ञा का पालन करता हुआ वह अपनी स्त्री के समान संपूर्ण राजगृही नगरी को लूटने लगा। इसी समय नगर, गांव और खानों आदि में विचरण करते हुए चौदह हजार मुनियों से परिवृत्त चरम तीर्थंकर श्री वीर प्रभु जी राजगृही नगरी में पधारे। देवताओं द्वारा संरचित सुंदर स्वर्ण कमल पर चरण रखते हुए प्रभु जी समीप में ही पधारे। तब वैमानिक, ज्योतिष, भुवनपति और व्यंतर देवों ने मिलकर प्रभु के समवसरण की रचना थी। उसमें आसीन होकर श्री वीरप्रभु योजन प्रमाण प्रसरती सर्वभाषानुसारी वाणी द्वारा धर्म देशना देने लगे। उस समय वह रोहिणेय चोर राजगृही नगरी की ओर जा रहा था। उसी मार्ग में यह समवसरण था। यह देखकर वह सोचने लगा 'यदि इस मार्ग से मैं जाऊँगा, तो महावीर के वचन मुझे सुनाई दे देंगे, तो पिता की आज्ञा का भंग होगा एवं इसके सिवा अन्य कोई राजगृही में जाने का अन्य मार्ग भी नहीं है। अब क्या करना? ऐसा विचार करके दोनों कानों के आड़े हाथ रखकर उसी मार्ग से वह राजगृही नगरी में गया। इस प्रकार गमनागमन करते हुए एक बार समवसरण के पास ही उसके पैर में कांटा लग गया। जल्दी जल्दी चलने से वह काँटा खूब ऊँडा उसके पैर में घुस गया। उसे निकाले बिना वह एक कदम भी चलने में शक्तिमान् नहीं हुआ। जब उसे कोई अन्य उपाय न सूझा तब कान पर से एक हाथ हटाकर वह काँटा निकालने लगा। उस समय प्रभु के मुख से निकली वाणी सुनने में आई “जिनके चरण पृथ्वी का स्पर्श भी नहीं करते, नेत्र भी निमेष रहित होते हैं, पुष्पमाला मुरझाती नहीं और शरीर प्रस्वेद तथा रज रहित होता है, वह देवता होते है।" ओह! मैंन तो बहुत कुछ सुन लिया, मुझे धिक्कार है, ऐसा सोचता हुआ जल्दी जल्दी पैर में से काँटा निकाल कर पुनः कान पर हाथ रखकर वह रोहिणेय वहाँ से शीघ्र ही अपने काम पर चला गया। (गा. 10 से 25) वह चोर प्रतिदिन शहर में चोरी करता था। उससे उकताकर (घबराकर) नगर के श्रेष्ठी गण श्रेणिक राजा के पास आकर कहने लगे कि, 'हे देव! आपके राज्य पालन करने पर भी हमें अन्य किसी का भय न होकर चेटक की भांति कोई चोर अदृश्य रहकर हमको लूटता है उसका भय है।' बंधु के सदृश उनकी यह पीड़ा सुनकर श्रेणिक राजा ने कुपित होकर कोतवाल को बुलाकर कहा कि, 'अरे कोतवाल! क्या तुम चोर होकर या चोर के भागीदार होकर मेरा वेतन खाते हो? कि जिससे तुम्हारी उपेक्षा होने से इन प्रजाजनों की चोर लूंटते 244 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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