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________________ गंगानदी के तीर पर काशी नामकी एक उत्तम नगरी थी । जो कि विचित्र और रमणीय रचना से पृथ्वी के तिलक की शोभा हो वैसी दृष्टिगोचर हो रही थी। अमरावती में इंद्र के तुल्य उस नगरी में अखंडित पराक्रम वाला जितशत्रु नामका उत्तमराजा था, और मानो मानवधर्म मनुष्यत्व को संप्राप्त हो वैसा चुलनीपिता नाम का एक धनाढ्य गृहस्थ वहाँ रहता था । जगत् को आनंद दायक उस गृहस्थ के चंद्र के श्यामा तुल्य श्यामा नामकी एक अनुकूल रूपवती रमणी थी। उस श्रेष्ठी के पास आठ करोड़ भंड़ार में, आठ करोड़ ब्याज में तथा आठ करोड़ व्यापार में कुल मिलाकर चौवीस करोड़ सोना मोहर की संपत्ति थी । एक एक गोकुल में दश दश हजार गायवाले आठ गोकुल थे। जो कि लक्ष्मी के कुलगृह सम शोभते थे। किसी समय उस नगरी के कोष्टक नामक उद्यान में विहार करते हुए श्री वीरप्रभु जी समवसरे । तब इंद्र सहित देवगण, असुर और जितशत्रु राजा भी प्रभु को वंदन करने आए। इसी प्रकार ये समाचार श्रवण करके चुलनीपिता भी जगत्पति वीरप्रभु को वंदन करने की इच्छा से योग्य आभूषण पहन कर पैदल चलकर वहाँ आया । भगवंत को नमन करके योग्य स्थान पर बैठकर चुलनीपिता ने परम भक्ति से अंजलीबद्ध होकर धर्मदेशना सुनी। जब पर्षदा उठी, तब चुलनीपिता ने प्रभु के चरणों में नमन करके विनीत होकर कहा कि, “हे स्वामी! हम जैसों को बोध देने के लिए आप पृथ्वी पर विचरण करते हो, क्योंकि सूर्य का संक्रमण जगत् को प्रकाश देने के अतिरिक्त अन्य कोई भी अर्थ से होता नहीं हैं । सर्वजन जननी के पास जाकर याचना करे तो वह भी कभी दे और कभी कभी न भी दे । परंतु आप तो याचना बिना भी बोध प्रदान करते हो। उसका हेतु तो मात्र आपकी कृपा ही है । मैं जानता हूँ कि आपके समीप यतिधर्म ग्रहण करूं तो ठीक, परंतु मेरे जैसा मंदभागी मनुष्य में वैसी योग्यता नहीं है। इसलिए हे नाथ! मैं श्रावक धर्म की याचना करता हूँ। वे मुझे प्रसन्न होकर प्रदान करें। क्योंकि मेघ स्वयमेव जल वहन करके योग्य स्थल पर बरसता हैं। प्रभु ने कहा कि “जिसमें सुख उपजे वैसा करो । प्रभु की सहमति प्राप्त होते ही उसने बारह प्रकार का श्रावक धर्म ग्रहण किया। चौबीस कोटि धन से विशेष धन का और गायों के आठ गोकुल से अधिक गोकुल का उसने त्याग किया। इसके अतिरिक्त अन्य वस्तुओं का भी कामदेव श्रावक के समान उससे नियम लिया। उस की पत्नि श्यामा ने भी प्रभु के पास श्रावक के व्रत अंगीकार किये। उस समय गौतम गणधर ने प्रभु को नमन करके पूछा कि, "हे स्वामी! त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व) 194
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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