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________________ दिन निर्गमन करते थे। उनका ऐसा मत था कि, “एक बड़े हाथी को मार डालना वह अच्छा कि जिससे एक जीव के ही मांस से अपना बहुता सा समय व्यतीत हो जाए। मृग, तीतर, मत्स्य आदि अनेक शूद्र प्राणियों का और अनेक धान्य के कणों का आहार किसलिए करना? कि जिसमें अनेक जीवों की हिंसा होने से बहुत पाप लगता हो।' ऐसे उस दयाभास (आभास मात्र जिसमें दया है, वास्तविक दया नहीं)। ऐसे धर्म को मानने वाले तापसों ने उस समय मारने के लिए एक विशालकाय हाथी को वहाँ बांध रखा था। भारी श्रृंखला के द्वारा हाथी को बांधा था, उस मार्ग से होकर ये करुणालु महर्षि निकले। पाँच सौ मुनियों से परिवृत्त उन महर्षि को अनेक लोग पृथ्वी पर मस्तक नमा-नमा कर नमन करते थे। यह देखकर लघुकर्मी गजेन्द्र ने विचार किया कि मैं भी यदि इस श्रृंखला से मुक्त हो जाऊं तो इन मुनिवर को वंदना करूं, परंतु बंधन में हूँ, अतः क्या करूं? हाथी इस प्रकार विचार कर ही रहा था कि इतने में गरुड़ के दर्शन से नागपाश के समान उन महर्षि के दर्शन से उसके लोहमयबंधन टूट गये। जिससे वह हाथी छूट कर मुनि को वंदन करने के लिए उनके सामने चल दिया। यह देख लोग कहने लगे कि, 'इन मुनि को यह हाथी जरूर मार डालेगा।' ऐसा बोलते हुए वे हाथी के भय से दूर भाग गये। परंतु मुनि तो वहीं पर स्थित रहे। उस गजेन्द्र ने मुनि के पास आकर कुंभस्थल नमाकर प्रणाम किया और दाह से पीड़ित की भांति कदली का स्पर्श करे वैसे उस गजेन्द्र ने सूंढ प्रसार कर मुनि के चरणों को स्पर्श किया, जिससे वह परम शांति को प्राप्त हुआ। पश्चात् वह हाथी खड़े होकर भक्ति से भरपूर दृष्टि से मुनि को निहारता हुआ अनाकुलता से अरण्य में चला गया। मुनि के ऐसे अद्भुत प्रभाव से और हाथी के भाग जाने से दयाभास धर्मी हस्तितापस उनपर बहुत क्रोधित हुए। आर्द्रककुमार ने उनको भी प्रतिबोधित किया और समता संवेग से शोभित उनको वीरप्रभु के समवसरण में भेज दिया, वहाँ जाकर उन्होंने हर्ष से दीक्षा अंगीकार कर ली। (गा. 329 से 344) श्रेणिक राजा गजेन्द्र के मोक्ष से एवं तापसों के प्रतिबोध की हकीकत सुनकर अभयकुमार सहित आर्द्रक मुनि के पास आए। भक्ति पूर्वक वंदना करते हुए राजा को मुनि ने सर्व कल्याण कारी धर्मलाभ रूपी आशीष से आनंदित किया। मुनि को शुद्ध भूमितल पर निराबाध रूप से बैठे देखकर राजा ने पूछा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व) 175
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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