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________________ द्वारा प्रेषित प्रतिमा उसके पास भेजी, सात क्षेत्र में धन को व्यय करके स्वयमेव यति लिंग ग्रहण कर लिया। जिस समय वह सामायिक व्रत का उच्चारण कर रहा था, उस समय आकाश में स्थित देवताओं ने उच्चस्वर में कहा कि, 'हे महासत्त्व! अभी तुमको व्रत ग्रहण नहीं करना है, अभी व्रत लेने से तुम्हारा उपहास्य होगा। ऐसा भोजन करना भी किसी काम का कि जिसका वमन हो जाय? ऐसे देवताओं के वचनों का अनादर करके आर्द्रकुमार ने पराक्रम के द्वारा स्वयमेव दीक्षा ग्रहण कर ली। इस प्रकार आर्द्रककुमार मुनि प्रत्येकबुद्ध होकर उत्कृष्टता से व्रतों का पालन करते हुए विहार करने लगे। अनुक्रम से वह वसंतपुर नगर में आए, और नगर के बाहर किसी देवालय में प्रतिमाधारण करके रहे अर्थात् सर्व आधि को दूर करके समाधिस्थ हुए। (गा. 251 से 262) उस नगर में महाकुलवान् देवदत्त नाम का एक बड़ा सेठ रहता था। उसके धनवती नाम की पत्नि थी। उस बंधुमती का जीव देवलोक से च्यवकर उस सेठ के घर पुत्रीरूप से अवतरा। उस बाला का श्रीमती नामकरण किया। वह अत्यन्त स्वरूपवती और सर्व वनिताओं में शिरोमणि हो गई। मालती के पुष्पों की माला की तरह धात्रियों से पालित वह कन्या अनुक्रम से धूलिक्रीड़ा योग्य अवस्था को प्राप्त हो गई। एक बार श्रीमती नगर की अन्य बालाओं के साथ पतिरमण की क्रीड़ा करने के लिए पूर्वोक्त देवालय में आई कि जहाँ आर्द्रक मुनि कायोत्सर्ग में रहे थे। वहाँ क्रीड़ा करने के लिए सर्व बालिकाएँ बोली कि 'सखियों! सर्व अपनी अपनी इच्छानुसार वर का वरण कर लो। तब सर्व कन्याओं ने परस्पर रूचि के अनुसार वरण कर लिया। तब श्रीमती ने कहा कि, सखियों! मैं तो इन भट्टारक मुनि को वरण कर चुकी। उस समय देवता ने आकाशवाणी की कि- 'साधु वृत्तं साधु वृत्तं' तूने अच्छा वरण किया। इस प्रकार कहकर गर्जना करके उस देव ने वहां रत्नों की वृष्टि की। उस गर्जना से त्रास पाकर श्रीमती उन मुनि के चरणों में लिपट गई। मुनि ने विचार किया कि, 'यहाँ क्षणभर मात्र रहने से भी व्रतरूपी वृक्ष को महान पवन जैसा मुझे यह अनुकूल उपसर्ग हुआ। इसलिए यहाँ अधिक समय तक रुकना योग्य नहीं हैं।' ऐसा विचार करके वे मुनि वहाँ से अन्यत्र चले गये। “महर्षियों को किसी भी स्थल पर निवास करके रहने की आस्था नहीं होती, तो जहाँ उपसर्ग हो 170 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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