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________________ देखकर राजा ने प्रेम सभर वाणी से उसका कारण पूछा- 'हे प्रिये ! क्या मैंने कुछ तुम्हारा पराभव किया है ? या किसी ने तुम्हारी आज्ञा - खंडित की है ? क्या तुम्हें कोई दुःस्वप्न आया है ? अथवा क्या तुम्हारा कोई मनोरथ भग्न हुआ है ? इस प्रकार राजा ने बहुत आग्रह से पूछा, तब मानो विषपान करती हो वैसे गद्गद् अक्षरों से उसने उसका वास्तविक कारण कह दिया। तब 'मैं तुम्हारा दोहद पूर्ण करूंगा' ऐसा प्रिया को आश्वासन देकर श्रेणिक राजा अभयकुमार के पास आए एवं सर्व हकीकत कह कर पूछा कि, 'यह दोहद किस प्रकार पूर्ण किया जाय ?' अभय ने श्रेणिक राजा के उदर पर खरगोश का मांस बांधकर उसे चर्म से आच्छादित किया और फिर उसको सीधा ही सुलाया । श्रेणिक की आज्ञा से चेल्लणा राक्षसी की भांति एकान्त में उस मांस को अव्यग्ररूप से भक्षण करने लगी। जब वह मांस तोड़-तोड़ कर खा रही थी तब मानो नटविद्या का अभ्यासी हो वैसे राजा बारम्बार कृत्रिम रूप से मूर्च्छित हो रहा था । यह देखकर पति के दुःख का चिंतन करती हुई चेल्लणा का हृदय कंपायमान होता और गर्भ सम्बन्धित विचार करने पर वह क्षणभर में उल्लसित होती । इस प्रकार बुद्धि के प्रयोग से चेलना का दोहद पूर्ण हुआ । परंतु बाद में 'मैं पति का हनन करने वाली पापिनी हूँ ।' ऐसा बोलती हुई वह मूर्च्छित हो गई। राजा ने चेल्लना की मूर्च्छा दूर करके अपना अक्षत शरीर बताया। उनके दर्शन करके सूर्य दर्शन से कमलिनी की भांति वह बहुत हर्षित हुई । (गा. 280 से 294) नव मास पूर्ण होने पर जैसे चंदन को मलयाचल की भूमि प्रसव करती है, वैसे उस चेटक कुमारी ने एक पुत्र को जन्म दिया । तत्काल ही चेल्लणा ने दासी को आज्ञा दी कि, 'यह बालक उसके पिता का वैरी है, इसलिए इस पापी को सर्प के बच्चे के जैसे दूर ले जाकर छोड़ दो । दासी उसे ले जाकर अशोक वन की भूमि में छोड़ आई। वहाँ उपपाद शय्या में उत्पन्न हुए देव के समान वह प्रकाश करता हुआ शोभने लगा । उस बालक को छोड़कर आती हुई दासी को देखकर राजा ने पूछा कि 'तू कहाँ गई थी ?' तब दासी ने यथा तथ्य स्वरूप कह सुनाया । तुरंत ही राजा अशोकवन में गया और उस पुत्र को देखकर स्वामी के प्रसाद की तरह प्रीतिपूर्वक दोनों हाथों में ले लिया । पश्चात् उसे घर लाकर चेल्लणा से कहा कि, “अरे! कुलीन और विवेकी होकर तूने ऐसा अकार्य क्यों किया ? कि जो चंडाल भी करे नहीं। जो दुश्चारिणी अधर्मी या साक्षात् कर्कशा हो वह भी त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व ) 143
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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