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पर बैठकर लज्जा से मुख नीचा करके वह अपने स्वागतार्थ आए हुए सामानिक देवताओं से बोला कि, हे देवों ! आपने मध्यस्थ रूप से शक्रेन्द्र के लिए जैसा कहा था, वह वैसा ही है । परंतु उस वक्त अज्ञानता से यह सब मैंने जाना नहीं । जैसे प्रथम सिंह की गुफा में सियार जाय वैसे मैं भी उनकी सभा में गया, वहाँ उनके अभियोगिक देवों ने कौतुक देखने की इच्छा से मेरी उपेक्षा करके जाने दिया । परंतु इंद्र ने मेरी ओर वज्र छोड़ा। उससे भयभीत होकर महाकष्ट से मैं सुरासुरों
नमित श्री वीरप्रभु ने चरण - शरण में गया। श्री वीरप्रभु की शरण में जाने से इंद्र ने मुझे जीवित छोड़ दिया । इसलिए मैं यहाँ आया हूँ। अब आप सब चलो, अपन श्री वीरप्रभु के पास जाकर वंदन करें। इस प्रकार चमरेन्द्र अपने सर्व परिवार के साथ प्रभु के पास आया और प्रभु को नमन करके संगीत करके पश्चात् अपनी नगरी की ओर गया ।
(गा. 452 से 466)
प्रातः काल में प्रभु एक रात्रि की प्रतिमा संपन्न करके अनुक्रम से विहार करके भोगपुर नामक नगर में आए। वहाँ माहेन्द्र नामक एक क्षत्रिय था, वह दुर्मति प्रभु को देखकर एक खजूर की यष्टि लेकर प्रभु पर प्रहार करने को दौड़ा। उस वक्त सनत्कुमारेन्द्र कि जो बहुत समय से प्रभु के दर्शन को उत्कंठित थे, वे प्रभु को वंदन करने के लिए वहाँ आये । तब उन्होंने उस शठ को उपद्रव करते हुए देखा। इससे उस क्षत्रिय का तिरस्कार करके इंद्र ने प्रभु को वंदना की एवं भक्तिपूर्वक सुखपृच्छा करके स्वस्थान चले गये । भगवंत भी वहाँ से विहार करके नंदीग्राम आए। वहाँ नंदी नामक भगवंत के पिता का मित्र था, उसने भक्ति से प्रभु की पूजा की। वहां से प्रस्थान करके प्रभु मेढक गांव में आए। वहाँ एक ग्वाला बालों की डोरी लेकर प्रभु को मारने के लिए दौड़ा। वहाँ पर भी कुर्मार गांव की तरह इंद्र ने आकर उस गोप का निवारण किया एवं प्रभु को भक्ति से वंदना की। वहाँ से विहार करके प्रभु कौशांबी नगरी में आए।
(गा. 467 से 474)
कौशांबी में शत्रुओं के सैन्य से भयंकर शतानीक नाम का राजा था । उनके चेटक राजा की पुत्री मृगावती नामकी रानी थी। वह सदा तीर्थंकर के प्रभु चरण की पूजा में एक निष्ठावाली परम श्राविका थी । शतानीक राजा के सुगुप्त नामका मंत्री थी, उसके नंदा नामक स्त्री थी । वह भी परम श्राविका और
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व )
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