SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऐसा कार्य करना चाहिये कि आगामी भव में सुख प्राप्त होय।" इस प्रकार चिंतन करके प्रातः काल में स्वजनों को प्रीतिभोज देकर व्रत लेने की आज्ञा मांगी और अपने पुत्र को अपने स्थान पर स्थापित किया। पश्चात व्रत लेकर प्रणाम जाति का तापस होकर तप करने लगा। उसने भिक्षा लेने के लिए चार पडवाला एक काष्टमय भिक्षापात्र ग्रहण किया। तथा उस दिन से लेकर निरंतर छ? छ? का तप करने लगा। उसी के साथ प्रतिदिन आतापना लेकर शरीर को कृश करने लगा। जब पारणे का दिन आता तब उस चार पड़वाले भिक्षापात्र को लेकर मध्याह्नकाल में भिक्षा लेने जाता। पहले पड़वाली भिक्षा को वह पांथजनों को देता, दूसरे पड़ में आई भिक्षा वह कौवे आदि को डालता, तीसरे पड़ में आई भिक्षा को मत्स्यादिक जलचर प्राणियों को देता और चौथे पड़ में आई भिक्षा का रागद्वेष रहित चित्त से स्वयं खाता। इस प्रकार बाहर वर्ष तक बाल (अज्ञान) तप करके अंत में उसने बिभेल गांव की ईशान दिशा में अनशन ग्रहण किया। एक मास का अनशन करके मृत्यु के पश्चात् बालतप के प्रभाव से वह चमरंचचा नगरी में एक सागरोपम की आयुष्यवाला चमरेन्द्र हुआ। उत्पन्न होते ही अवधिज्ञान रूप नेत्र से वह अन्य भुवनों का निरीक्षण करने लगा। अनुक्रम से उर्ध्व भाग में दृष्टिपात करते हुए उसने सौधर्मेन्द्र को देखा। सौधर्मावतंसक नामक विमान में सुधर्मासभा में स्थित महर्द्धिक वज्रधारी शक्रेन्द्र को देखते ही वह क्रोधित होकर अपने स्वजनों को इस प्रकार कहने लगा किअरे! अप्रार्थित की प्रार्थना करने वाला यह कौन दुरात्मा अधम देव मेरे मस्तक पर पैर रखकर, निर्लज्ज होकर विलास कर रहा है? उसके उत्तर में उसके सामानिक आदि देवता मस्तक पर अंजली रखकर बोले- "हे स्वामी! महा पराक्रमी और प्रचण्ड शासनवाले सौधर्म कल्प के वे इंद्र है।" यह सुनकर उसको विशेष क्रोध उत्पन्न हुआ, ऐसा वह चमरेन्द्र भृकुटी से भयंकर मुखाकृति से नासिका के फुफाड़े से चमर को उड़ाता हुआ बोला कि “अरे! देवताओं! तुम मेरे पराक्रम को जानते नहीं हो, इससे उसकी प्रशंसा कर रहे हो ? अब मैं उसे नीचे गिरा कर तुमको अपना बल बताऊंगा? वहाँ निर्विघ्न रूप से इतने समय तक यदि दैवयोग से ऊँचे स्थान में उत्पन्न हो गया तो इतने मात्र से वह कोई अधिक समर्थ नहीं हो गया। यदि कौआ हाथी की पीठ पर बैठ जाय तो उसे क्या रथी माना जाय? अब मेरे क्रोध से वह वहाँ रह नहीं सकेगा। क्योंकि सूर्य उदय होते ही अन्य का तेज या अंधकार रह सकता नहीं है।" पश्चात् सामानिक 96 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy