SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वह उद्यान में गया, वहाँ बलदेव के मंदिर में उसने प्रतिमा में रहे हुए प्रभु को देखा। उस समय 'ये छद्मस्थ रूप में रहे हुए चरम तीर्थंकर हैं' ऐसे निश्चय से उसने भक्ति से प्रभु वंदना की। फिर अपने चित्त में विचार करने लगा कि- 'प्रभु आज उपवास करके प्रतिमा धारण करके रहे हुए लगते है, ये यदि कल मेरे गृह पर पारणा करें तो अत्युत्तम हो।' ऐसी आशा करके उसने चार मास तक हमेशा प्रभु की सेवा की, अंतिम दिन प्रभु को आमंत्रण करके वह स्वगृह गया एवं स्वयं के निमित्त श्रेष्ठ मनवाला उसने पहले से ही संप्राप्त प्रासुक एवं ऐषणीय भोजन तैयार करके रखा। पश्चात् वह जिनदत्त श्रेष्ठी प्रभु के मार्ग की ओर दृष्टि रखकर आंगण में खड़ा होकर चिंतन करने लगा कि, “यह भोजन मैं प्रभु का वहोराऊँगा। मैं कैसा धन्य हूँ कि मेरे घर अर्हत् प्रभु स्वयमेव पधारेंगे और संसार सागर से तिरानेवाला पारणा करेंगे। जब प्रभु पधारेंगे तब मैं उनके सन्मुख जाऊँगा और तीन प्रदक्षिणा देकर उनके चरणकमल में वंदना करूंगा। अहो! मेरा जन्म अबपुनर्जन्म के लिए नहीं होगा। क्योंकि प्रभु का दर्शन भी मोक्ष के लिए होता है, तो पारणे की तो बात ही क्या करनी? इस प्रकार जीर्ण श्रेष्ठी चिंतन कर रहे थे, कि 'इतने में तो प्रभु वहाँ के नवीन श्रेष्ठी के यहाँ पधारे। वह नवीन सेठ मिथ्यादृष्टि था। उसने लक्ष्मी के मद से ऊँची ग्रीवा रखकर दासी को आज्ञा की कि, भद्रे! इस भिक्षुक को भिक्षा देकर शीघ्र ही विदा कर दे।' वह हाथ में काष्ट का भाजन लेकर उसमें कुल्माष (उड़द के बाकुले) धान्य लेकर आई एवं प्रभु के पसारे हुए करपात्र में वे वहरा दिये। उसी समय देवताओं ने आकाश में दुंदुभी का नाद किया, चेलोत्क्षेप (वस्त्र की वृष्टि) की, वसुधारा (द्रव्य की वृष्टि) की तथा पुष्प की और सुगंधी जल की वृष्टि की। लोग एकत्रित होकर उस अभिनव श्रेष्ठी को पूछने लगे, तब उसने कहा कि 'मैंने स्वयं ने प्रभु को पायसान्न (खीर) द्वारा पारणा कराया। 'अहो दानं, अहो दानं' ऐसा देवता की ध्वनि सुनकर लोक और राजा उस नवीन श्रेष्ठी की बारंबार स्तुति करने लगे। इधर जीर्णश्रेष्ठी तो प्रभु के आगमन संबंधी विचार करता हुआ वहीं खड़ा था, इतने में तो देवताओं की दुंदुभी की ध्वनि सुनकर वह इस प्रकार चिंतन करने लगा कि 'अहो! मुझ जैसे मंदभाग्यवाले को धिक्कार है, मेरा मनोरथ वृथा हुआ, क्योंकि प्रभु ने मेरे गृह का त्याग करके अन्यत्र पारणा किया।' (गा. 347 से 363) 94 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy