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________________ पृथ्वी को संपुट करने के लिए अन्य उतने ही प्रमाणवाला पुट हो वैसा वह कालचक्र उसने जोर से प्रभु के ऊपर फेंका। उछलती ज्वालाओं से सर्वदिशाओं को विकराल करता वह चक्र समुद्र में वडवानल की तरह प्रभु के ऊपर गिरा। (गा. 219 से 241) कुलपर्वतों को भी चूर्ण करने में समर्थ ऐसे उस चक्र के प्रहार से प्रभु जानु (घुटने) तक पृथ्वी में मग्न (धंस) हो गए। इस प्रकार अन्यथा होने पर भी भगवंत मिष्ट दृष्टि पात कर रहे थे। इससे ये अवश्य ही विश्व को तारने के इच्छुक हैं और हम संसार के कारण हैं। जब ऐसे कालचक्र से भी ये पंचतत्व को प्राप्त नहीं हुए, तब तो ये अस्त्रों से अगोचर हैं। अब तो अन्य क्या उपाय रहे ? अब तो ये अनुकूल उपसर्गों से किसी प्रकार क्षोभ को प्राप्त करें, ऐसा करना चाहिए। ऐसी बुद्धि से वह देव विमान में बैठकर प्रभु के सम्मुख आकर बोला कि, “हे महर्षि! आपके उग्र तप से, सत्त्व से, पराक्रम से प्राणों की भी टेक से मैं आपके ऊपर संतुष्ट हुआ हूँ, इसलिए ऐसे शरीर को क्लेश कराने वाले तप की क्या जरुरत है ? तुम को जो भी चाहिये, सो मांग लो। मैं तुमको क्या दूँ ? तुम जरा भी शंका करना नहीं। कहो तो 'जयनित्यां' (इच्छा मात्र करने से) सर्व मनोरथ पूर्ण होते हैं, ऐसे स्वर्ग में इसी देह से तुमको ले जाऊं? अथवा कहो तो अनादि भव से संरुढ हुए सर्व कर्मों से मुक्त करके एकांत परमानंद वाले मोक्ष में तुमको ले जाऊं ? अथवा कहो तो मंडलाधीश राजा अपने मुकुट से जिनके शासन का पालन करते हैं, ऐसे समृद्धि वाले साम्राज्य को इस लोक में ही दूं। इस प्रकार के लुभावने वचनों से भी प्रभु किंचित्मात्र भी क्षुभित नहीं हुए और कुछ भी प्रत्त्युत्तर नहीं मिला। तब उसने इस प्रकार विचार किया कि, 'इस मुनि ने मेरी सर्व शक्ति का प्रभाव निष्फल किया है, परंतु अभी भी कामदेव का एक अमोघ शासन बाकी रहा हुआ हैं, क्योंकि कामदेव का अस्त्र रूप रमणियों के कटाक्ष में आए महान् पुरुष भी अपने पुरुषव्रत को लोप करते देखे गए हैं। ऐसा निश्चय करके उस देवता ने देवांगनाओं को आज्ञा दी और उनको विभ्रम में सहायक छः ऋतुओं को प्रगट की। उन्मत्त कोकिला के मधुर कूजन से प्रस्तावना करती हुई कामनाटक की दिग्वधू के लिए सैरंध्री दासी के समान मुखवास सज्ज करती ग्रीष्मऋतु की लक्ष्मी विस्तृत हो गई। श्वेत अक्षरों सी नवीन मोगरे की कलियों से कामदेव की जयप्रशस्ति लिख रही हो ऐसी हेमंत लक्ष्मी खिल उठी। 88 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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