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________________ 'हे प्रभु! आज तो मुझे भिक्षा मिली है, क्या मेरा अन्तराय कर्म क्षीण हो गया है ? प्रभु ने कहा- 'तुम्हारा अंतराय कर्म अभी क्षीण नहीं हुआ, परंतु कृष्ण वासुदेव की लब्धि से तुमको आहार मिला है। कृष्ण को तुझको वंदना करते देखकर श्रेष्ठी ने तुझे प्रतिलाभित किया है।' यह सुनकर रागादिक से रहित ऐसे ढंढणमुनि ने यह परलब्धि जन्य आहार है ऐसा सोचकर वह भिक्षा शुद्ध स्थंडिल भूमि में परठने (त्याग करने) लगे। उस समय 'अहो! जीवों के पूर्वोपार्जित कर्मों का क्षय होना बहुत कठिन है ।' ऐसा स्थिररूप से ध्यान करते हुए उन मुनि को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। तब नेमिप्रभु को प्रदक्षिणा देकर ढंढणमुनि केवली की पर्षदा में बैठे और देवतागण ने उनका पूजा की। (गा. 240 से 270) भगवान् नेमिनाथजी अनेक ग्राम, खान, नगरादि में विचरण करके पुनः पुनः द्वारका में समसरते थे। एक बार प्रभु गिरनार में थे, इतने में अकस्मात् वृष्टि हुई। उस समय रथनेमि बाहर के लिए भ्रमण करके प्रभु के पास आ रहे थे। उस वृष्टि से हैरान होकर वे एक गुफा में घुसे। इसी समय राजीमति साध्वी भी प्रभु को वंदन करके साध्वियों के साथ लौट रही थी । परंतु सभी वृष्टि के भय से अलग-अलग स्थान पर चली गयीं । दैवयोग से राजीमति ने अनजान में उसी गुफा में कि जहाँ रथनेमि मुनि पहले घुसे थे, उसमें ही प्रवेश किया। अंधकार के कारण अपने समीप में ही रहे हुए रथनेमि मुनि उसे दिखाई नहीं दिये और उसने अपने भीगे कपड़े सुखाने के लिए निकाल दिये । उसे वस्त्र बिना देखकर रथनेमि कामातुर हो गये और बोले- 'हे भद्रे ! मैंने तुझसे पहले भी प्रार्थना की थी, और अभी तो भोग का अवसर है।' स्वर से रथनेमि को पहचान कर शीघ्र ही उसने अपना शरीर वस्त्र से ढंक लिया और कहा कि 'कभी भी कुलीन व्यक्ति को ऐसा नहीं बोलना चाहिए।' फिर तुम तो सर्वज्ञ प्रभु के अनुज बंधु हो और उनके ही शिष्य बने हो । फिर अभी भी तुम्हारी उभय लोक के विरूद्ध ऐसी दुर्बुद्धि क्यों है ? मैं सर्वज्ञ की शिष्या होकर तुम्हारी इस वांछा को पूरी नहीं करूँगी। परंतु तुम तो वांछा मात्र से ही भवसागर में डूब जाओगे। चैत्यद्रव्य का नाश, मुनि और साध्वी का शीलभंग, मुनि की हत्या और प्रवचन की निंदा ये बोधिवृक्ष के मूल में अग्नि के जैसे हैं । फिर अगंधन कुल में उत्पन्न हुआ सर्प प्रज्वलित अग्नि में प्रवेश कर जाता है परन्तु वमन किया हुआ वापिस खाना चाहता नहीं है । अरे कामी ! तेरे मनुष्यत्व को धिक्कार त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व ) 285
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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