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________________ एक बार इंद्र ने सभा में कहा कि 'कृष्ण वासुदेव हमेशा किसी के भी दोष को छोड़कर मात्र गुण का ही कीर्तन करते हैं और कभी भी नीच युद्ध नहीं करते। इंद्र के इन वचनों पर श्रद्धा नहीं रखने वाला कोई देवता उनकी परीक्षा करने हेतु शीघ्र ही द्वारिका आया । उस समय रथ में बैठकर कृष्ण स्वेच्छा से क्रीड़ा करने जा रहे थे। वहाँ मार्ग में उस देवता ने कृष्णवर्णी एक मरे हुए श्वान को विकुर्वणा की । उसके शरीर में से ऐसी दुर्गन्ध निकल रही थी कि लोग दूर से ही उससे दुर्गन्ध और बाधा पा रहे थे। उस श्वान को देखकर कृष्ण ने कहा, अहो! इस कृष्णवर्णीय श्वान के मुख में पांडुवर्णीय दांत कितने शोभा दे रहे हैं ? इस प्रकार एक परीक्षा करके उस देव ने चोर बनकर कृष्ण के अश्वरत्न का हरण कर लिया। उसके पीछे कृष्ण के अनेक सैनिक दौड़ पड़े । उसको उसने जीत लिया, तब कृष्ण स्वयं दौड़कर उसके नजदीक जाकर बोले कि, अरे चोर ! मेरे अश्वरत्न को क्यों चुराता है ? उसे छोड़ दे, क्योंकि अब तू कहाँ जाएगा? देव ने कहा, मुझे जीतकर अश्व ले लो। कृष्ण ने कहा कि 'अब तो तू रथ में बैठ, क्योंकि मैं रथी हूँ । देव ने कहा, 'मुझे रथ या हाथी आदि की कुछ जरूरत नहीं है, मेरे साथ युद्ध करना हो तो बाहुयुद्ध से युद्ध करो।' कृष्ण कहा, 'जा, अश्व को ले जा, मैं हारा क्योंकि यदि सर्वस्व का नाश हो जाय तो भी मैं नीच-अधम नियम विशुद्ध नहीं करूँगा। यह सुनकर वह देव संतुष्ट हुआ । पश्चात् उसने इंद्र द्वारा की गई प्रशंसा आदि का वृत्तांत बताकर कहा कि 'हे महाभाग! वरदान मांगो। कृष्ण ने कहा, अभी मेरी द्वारिकापुरी रोग से उपसर्ग से व्याप्त है, तो उसकी शांति के लिए कुछ दो ।' तब देवता ने कृष्ण को 'भेरी' (नगाड़ा होता प्रत्युत्त बोल मुड़ा हुआ किसी सींग से बना वाद्य होता है) देकर कहा कि यह भेरी छःछः माह में द्वारिकानगरी में बजाना । इसका शब्द सुनने से पूर्व उत्पन्न सर्व व्याधि और उपसर्गों का क्षय हो जाएगा और छः महिने पर्यन्त नई व्याधि आदि उपसर्ग नहीं होंगे। इस प्रकार कहकर वह देव स्वस्थान पर चला गया। (गा. 159 से 172) कृष्ण ने द्वारका में ले जाकर वह भेरी बजाई, जिससे नगरी में हुए सर्व रोगों का उपशमन हो गया। इस भेरी की ख्याति सुनकर कोई धनाढ्य दाहज्वर से पीड़ित हुआ, देशांतर से द्वारका में आया। उसने आकर भेरी के पालक को कहा, 'हे भद्र! मुझ पर उपकार करके एक लाख द्रव्य लेकर उस भेरी का छोटा का टुकड़ा मुझे दे दो। इतनी मुझ पर दया करो । भेरीपाल द्रव्य में लुब्ध हुआ इससे त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व) 278
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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