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________________ नेमिनाथ बोले– ‘देवकी! वृथा खेद किसलिए करती हो ? पूर्वजन्म के कृत्य का फल इस जन्म में मिला है। क्योंकि पूर्व भव में तुमने तुम्हारे सात रत्न चुराये थे, पश्चात् जब वह रोने लगी तब तुमने उनमें से एक रत्न वापिस दिया था । यह सुनकर देवकी पूर्व भव अपने पूर्व के दुष्कृत की निंदा करती हुई घर गई और पुत्रजन्म की इच्छा से खेदयुक्त चित्त से रहने लगी। इतने में कृष्ण ने आकर पूछा कि हे माता ! तुम दुःखी क्यों हो ? देवकी बोली- हे वत्स! मेरा तो जीवन ही निष्फल गया है, क्योंकि तुम तो बालपन से ही नंद के घर बड़े हुए और तुम्हारे अग्रज छहों सहोदर भाई नागसार्थवाह के यहाँ बड़े हुए। मैंने तो सात पुत्रों में से एक का भी लालनपालन नहीं किया, इससे हे वत्स! बालक का लालनपालन करने की इच्छा से मैं एक पुत्र की इच्छा करती हूँ । उन पशुओं को भी धन्य है कि जो अपने अपत्यों (बछड़ों) का लालपालन करते हैं ।' (गा. 105 से 119) माता के ऐसे वचन सुनकर मैं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करूँगा ऐसा कहकर कृष्ण ने सौधर्म इंद्र के सेनापति नैगमेषी देव की आराधना की। देव प्रत्यक्ष होकर बोला- हे भद्र! तुम्हारी माता के आठवाँ पुत्र होगा, किन्तु जब वह बुद्धिमान् युवावस्था प्राप्त करेगा, तब दीक्षा ले लेगा । उसके इस प्रकार के कथन के स्वल्प समय के पश्चात् महार्द्धिक देव स्वर्ग से च्यव कर देवकी के उदर में उत्पन्न हुआ। समय आने पर पुत्र रूप से अवतरा । उसका गजसुकुमाल नामकरण किया। माना दूसरा कृष्ण ही हो ऐसे उस देवसमान पुत्र का देवकी लालनपालन करने लगी। माता को अति लाड़ला, और भ्राता को प्राण समान कुमार दोनों के नेत्ररूप कुमुद को चंद रूप समान प्रिय हुआ । अनुक्रम से यौवनवय को प्राप्त किया। तब पिता की आज्ञा से द्रुम राणा की पुत्री प्रभावती से विवाह किया, साथ ही सोमशर्मा ब्राह्मण की क्षत्रियाणी स्त्री से उत्पन्न सोमा नामकी कन्या से इच्छा न होने पर भी माता और भ्राता की आज्ञा से विवाह किया । इतने में श्री नेमिनाथ प्रभु वहाँ समवसरे। उनके पास स्त्रियों के साथ जाकर गजसुकुमाल ने सावधानी से धर्म श्रवण किया। जिसके फलस्वरूप अपूर्व वैराग्य होने पर दोनों पत्नियों के साथ आज्ञा लेकर उसने प्रभु के पास दीक्षा अंगीकार की । जब गजसुकुमाल ने दीक्षा ली तब उसके वियोग को सहन नहीं कर सकने के कारण माता पिता और कृष्ण प्रमुख भाईबंधु उच्च स्वर में रुदन करने लगे। (गा. 120 से 129) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व) 275
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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