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________________ मार्ग में अटारियों पर चढ़ी हुई पुरस्त्रियों की प्रेमा दृष्टियाँ मंगला लाजा (मंगलिक के निमित्त उड़ाई गई लाजा-धाणी) की तरह नेमिनाथ के ऊपर पड़ती थी। इस प्रकार पौरजनों द्वारा देखे हुए और परस्पर हर्ष से वर्णित नेमिकुमार अनुक्रम से उग्रसेन के घर के पास आए। नेमिनाथ के आगमन का कोलाहल सुनकर मेघध्वनि से मयूरी की तरह कमललोचना राजीमति भी माढ़ उत्कंठा वाली हो गई। इसका भाव जानकर उसकी सखियाँ बोली कि 'हे सुंदरी! तुम धन्य हो कि जिसका पाणिग्रहण नेमिनाथ करेंगे। हे कमललोचने! यद्यपि नेमिनाथ यहाँ ही आने वाले हैं, तथापि हमारी उत्सुकता होने से, गोख पर चढ़ कर उनको देखने की हो रही है। अपने मनोगत भावों को कहने से हर्षित हुई राजीमति भी संभ्रम से सखियों सहित खिड़की पर आ गई। (गा. 144 से 156) राजीमति ने चंद्र सहित मेघ के जैसे मालती के पुष्पों से गूंथा हुआ केशपाश धारण किया था। वह दो विशाल लोचन से कर्ण में धारण किये हुए आभूषण भूत कमल को हरा रही थी। मुक्ताफल वाले कुंडलों से युक्त कर्ण से सीप की शोभा को तिरस्कार कर रही थी। हींगलोक सहित अधर से पक्क बिंबफल को लज्जित कर रही थी। उसकी कंठाभूषणयुक्त ग्रीवा सुवर्ण की मेखलावाले शंख की जैसी शोभित हो रही थी। हार से अंकित उसके स्तन बिस ग्रहण करने वाले चक्रवाक जैसे शोभ रहे थे। करकमल से कमलखंडयुक्त सरिता जैसी दिख रही थी। मानो कामदेव की धनुर्लता हो, वैसा उसका मध्यभाग (कटि प्रदेश) मुष्टिग्राह्य था। मानो स्वर्णफलक हो वैसे नितम्ब से मनोरम थी। कदली के जैसे उसके उरू थे हिरणी के जैसी उसकी जंघा थी। रत्न जैसी नखवाली थी। उसके किनारी वाले श्वेतवस्त्र पहने थे और अंग पर गोरूचंदन का विलेपन किया था। इस प्रकार तैयार होकर देवी जैसे विमान में बैठती है वैसे वह गवाक्ष पर आकर बैठ गई। (गा. 157 से 162) वहाँ रहकर उसने मानो प्रत्यक्ष कंदर्प हों वैसे हृदय में कंदर्प को प्रदीप्त करने वाले नेमिनाथ को दूर से ही देखा। उनको नयनों से निरख कर उसने मन में सोचा कि 'अहो! ऐसे मन से भी अगोचर ऐसे पति मिलना दुर्लभ है। 252 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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