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________________ किया। तक्षण चक्र आकर हाजिर हो गया। तब जय की तृष्णा वाले, कोपांध मागधपति ने उसे आकाश में घुमाकर कृष्ण पर फेंका। जब चक्र विष्णु तरफ चला, तब आकाश में रहे हुए खेचर भी क्षुब्ध हो गए और कृष्ण का सर्वसैन्य भी दीनतायुक्त क्षोभ को प्राप्त हो गया। उसे स्खलित करने के लिए कृष्ण, बलरात पाँचों पांडवों ने और अन्य अनेक महारथियों ने अपने अपने अस्त्र फेंके परंतु वृक्षों के सामने आती हुई नदी की बाढ़ स्खलित नहीं होती वैसे ही उनसे अस्खलित हुआ यह चक्र आकर कृष्ण के वक्षःस्थल पर उन्नत भाग में लगा, फिर वह चक्र कृष्ण के पास ही खड़ा रहा। तब उसे कृष्ण ने अपने उद्यत प्रताप की तरह हाथ में ले लिया। उस समय यह नवें वासुदेव उत्पन्न हुए। इस प्रकार घोषणा करते हुए देवतागण ने आकाश में से कृष्ण पर सुगंधी जल, पुष्प की वृष्टि की। कृष्ण ने दया लाकर जरासंध को कहा, 'अरे मूर्ख! क्या यह भी मेरी माया है ? परंतु अभी भी तू जीवित ही घर जा, मेरी आज्ञा मान। अब भी तू मेरे दुर्विपाक को छोड़कर तेरी संपत्ति सुख को भोग और वृद्ध होने तक भी जिंदा रह।' जरासंध ने कहा- 'अरे कृष्ण! यह चक्र मैंने बहुत बार चलाया है, इससे मेरे पास यह कुलाल के चक्र जैसा है, इसलिए तुझे चक्र को छोड़ना हो तो खुशी से छोड़। फिर कृष्ण ने जरासंध पर यह चक्र छोड़ा। महात्माओं के लिये दूसरे के शस्त्र भी अपने शस्त्र जैसे हो जाते हैं।' उस चक्र ने आकर जरासंध का मस्तक पृथ्वी पर गिरा दिया। जरासंध मरकर चौथी नरक में गया और देवताओं ने ऊँचे स्वर में जयनाद करके कृष्ण पर कल्पवृक्ष के पुष्पों की वृष्टि की। (गा. 443 से 457) 236 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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