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________________ समक्ष उन कन्याओं का शांब के साथ विवाह कराया और जांबवती ने महोत्सव किया। (गा. 107 से 125) पश्चात् शांब वासुदेव को नमस्कार करने गये। वहाँ उन्होंने कहा, 'तात! आपने चिरकाल तक पृथ्वी पर घूम कर बहुत सी स्त्रियों से विवाह किया है और मैं तो पृथ्वी पर घूमे बिना एक साथ सौ कन्याओं को वरण कर ले आया हूँ, इससे मुझमें और आपमें यह प्रत्यक्ष अन्तर है।' वसुदेव बोले 'रे वत्स! तू तो कुढ का मेंढ़क जैसा है। पिता ने नगर के बाहर निकाला, तो भी तू वापिस आ गया, ऐसे मानवर्जित तुझे धिक्कार है और मैं तो भाई ने किंचित् अपमान किया, इससे वीरवृत्ति से नगर से निकलकर सर्व स्थानों में भ्रमण करके अनेक कन्याओं से विवाह किया है और जब अवसर पर भाई लोग मिले तो आदर से प्रार्थना करने पर वापिस घर आया हूँ। तेरी तरह अपने आप वापिस नहीं आया। ऐसा उनका उत्तर सुनकर अपने पूज्य सुदेव का स्वयं प्रथम वाक्यों द्वारा तिरस्कार किया है, ऐसा जानकर शांब ने अंजलि जोड़कर प्रणाम करके पितामह के प्रति बोला, 'हे पितामह! मैंने अज्ञान से और बालवृत्ती से ऐसा कहा है, आप इसे क्षमा करें। क्योंकि आपतो गुणों से लोकोत्तर हैं। (गा. 126 से 133) एक समय अनेक धनाढ्य वणिक विपुल किराने का सामान लेकर यवनद्वीप से जलमार्ग से वहाँ आये। उन्होंने दूसरा सब किराना तो द्वारिका में बेच दिया, परन्तु रत्नकंबल बेचे नहीं। विशेष लाभ की इच्छा से वह राजगृही पुरी गये। वहाँ से व्यापारी स्वयमेव ही उनको मगधेश्वर की दुहिता जीवयशा के घर ले गये। वे रत्नकंबल उन्होंने जीवयशा को बताए कि जो उष्णकाल में शीत और शीतकाल में उष्ण तथा अत्यन्त कोमल रोएं वाले थे। जीवयशा ने उन रत्नकंबलों का अर्धमूल्य किया, तो वे बोल उठे 'अरे! इस प्रकार अर्धमूल्य में बेचना ही होता तो हम द्वारिका छोड़कर यहाँ किसलिए आते?' जीवयशा ने पूछा, 'यह द्वारिका कैसा है और वहाँ का राजा कौन है ? व्यापारी बोले 'समुद्र द्वारा दिये गये स्थान में इस द्वारिका नगरी का देवताओं ने निर्माण किया है। वहाँ देवकी और वसुदेव के पुत्र कृष्ण राजा है। यह सुनकर जीवयशा रूदन करती हुई बोली अरे! क्या मेरे स्वामी का संहार करने वाला यह कृष्ण जीवित है और 218 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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