SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के साथ वासगृह में गया । परंतु उसके साथ शयन करते हुए उसके अंग के स्पर्श से मानो अग्नि का स्पर्श हुआ हो इस प्रकार वह जलने लगा । शीघ्र ही वह वहाँ से उठा और अपना जो वेश था, वह पहन पलायन कर गया । सुकुमारिका पहले की तरह व्यथित हुई। उसकी अवस्था को देखकर उसके पिता ने कहा, वत्से ! खेद मत कर तेरे पूर्व के पापकर्म का उदय हुआ है। अन्य कोई कारण नहीं है। इसलिए संतोष धारण करके अपने घर में रहकर ही नित्य ही दान पुण्य किया कर । पिता के इस प्रकार के वचनों से सुकुमारिका शांत हुई और धर्म में तत्पर होकर निरंतर दान पुण्य करने लगी । (गा. 336 से 341 ) किसी समय गोपालिका नामक साध्वी उसके घर आई । उनको सुकुमारिका ने शुद्ध जलपानादि से प्रतिलाभित किया । उनके पास से धर्मश्रवण कर वह प्रतिबोध को प्राप्त कर उसने चारित्र अंगीकार किया । चतुर्थ, छठ और अट्ठम आदि तपस्या आचरती हुई वह गोपालिका साध्वी के साथ हमेशा विहार करने लगी। एक बार सुकुमारिका साध्वी ने अपने गुरूजी को कहा कि पूज्य आर्या ! आपकी आज्ञा हो तो मैं सुभूमिभाग नामक उद्यान में रविमंडल के सामने देखती हुई आतापना लेउं । आर्या बोली- अपने निवास स्थान से बाहर रहकर साध्वी को आतापना लेना कल्पता नहीं है, ऐसा आगम में कहा है। गुरू महाराज के इस प्रकार कहने पर भी सुनी अनसुनी करके वह सुकुमारिका सुभूभिभाग उद्यान में गई और सूर्य के सामने दृष्टि स्थापन करके आतापना लेने लगी। (गा. 342 से 347 ) एक बार देवदता नाम की एक वेश्या वहाँ उद्यान में आई हुई उनके देखने में आई। उसके एक कामी पुरूष ने उसे अपने उत्संग में बैठा रखा था एक ने उसके सिर पर छत्री धारण की थी, एक उसके वस्त्र के किनारे से पवन कर रहा था। (गा. 348 से 349) एक उसके केश को बाँध रहा था और एक ने उसके चरण ले रखे थे । इस प्रकार देखकर सुकुमारिका साध्वी कि जिसकी भोग इच्छा पूर्ण हुई नहीं थी उसने ऐसा मनोभाव किया इस इस तपस्या के प्रभाव से मैं भी इस वेश्या की भांति पाँच पति वाली होंउ । उसके पश्चात बारबार वह अपने शरीर को साफ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व ) 199
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy