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________________ दिन उन्होंने यह निश्चित किया कि अपन तीनों भाईयों को एक एक भाई के घर क्रम से साथ में भोजन करना चाहिए। ऐसा करते हुए एक दिन सोमदेव के घर भोजन की बारी आई। इसलिए भोजन का अवसर होने से पहले से ही नाग श्री विविध प्रकार के भोजन की तैयारी करने लगी । उसके एक सुंदर परंतु अनजान में कड़वी तुंबडी का साग बनाया। साग बन जाने पर उसके स्वाद के लिए उसको चखा। परंतु वह तो अत्यंत कड़वा होने से उसने उसे अभोज्य समझकर थँक दिया । पश्चात सोचने लगी कि मैंने बहुत स्वादिष्ट विविध पदार्थों से यह शाक सुधारा, तथापि यह कडवा ही रहा । (गा. 280 से 295) ऐसा सोचकर उसने वह साग छुपा दिया और उसके अतिरिक्त अन्य भोजन के द्वारा उसने अपने घर पर आए कुटुंब सहित अपने पति को और देवर को जिमाया। उस समय सुभूमिभाग नाम के उस नगर के उद्यान में ज्ञानवान और परिवार सहित श्रीधर्म घोष आचार्य समवसरे। उनके धर्म रूचि नाम के शिष्य मासक्षमण के पारणे सोमदेवादिक सर्व भोजन करके जाने के पश्चात नाग श्री के घर भिक्षा लेने आए । नाग श्री ने विचार किया कि इस साग से ये मुनि ही संतुष्ट हों ऐसा सोचकर उस कड़वी तुंबडी का साग उन मुनि को अर्पित कर दिया मुनि ने सोचा कि आज मुझे कोई अपूर्व पदार्थ प्राप्त हुआ है। इससे उन्होंने 'गुरू के पास जाकर उनके हाथ में पात्र दिया। मुझे उसकी गंध लेकर बोले हे वत्स! यदि तू यह पदार्थ खाएगा तो अवश्य मृत्यु को प्राप्त होगा । इसलिए इसे परठ दे। अर्थात त्याग दे पुनः अब ऐसा पदार्थ देखभाल करके लाना। गुरु के ऐसे वचन से वे मुनि उपाश्रय के बाहर शुद्ध स्थडिल भूमि पर परठने के लिए आए। इतने में उस पात्र में से एक बिंदु शाक भूमि पर गिर पड़ा। उसकी गंध रस से आकर्षित होकर अनेक चींटियां वहाँ आकर चिपक गई और तुंरत ही मर गई । यह देखकर मुनि ने विचार किया कि इसके एक बिंदु से अनेक जंतु मर जाते हैं तो इस पूरे को परठने में कितने ही जंतु मर जायेंगे। इससे जो मैं ही मर जाऊँ तो ठीक। परंतु अनेक जीव मरे वह ठीक नहीं। ऐसा निश्चय करके समाहित भाव से उन्होंने उस साग का भक्षण कर लिया। बाद में समाधिपूर्वक सम्यक् प्रकार से अराधना करके मृत्यु के पश्चात् सर्वार्थसिद्धि विमान में अहमिंद्र देव बने। (गा. 296 से 306) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व ) 196
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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