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________________ उसके पति सोमदेव ने कहा कि हे भद्रे! इन मुनि को भिक्षा अर्पण करो इतने में किसी पुरूष के बुलाने पर सोमदेव बाहर चला गया, तब उसी क्षण उस स्त्री ने थू थू कार करके कठोर वाणी बोलकर उस मुनि को घर से बाहर निकाल दिया और जल्दी से दरवाजा बंद कर दिया। मुनि गुगुप्ता के इस तीव्र पाप कर्म से सातवें दिन उस स्त्री को गलत्कुष्ठ हो गया। जिसकी पीड़ा से व्याकुल होकर वह अग्नि में जल मरी। मृत्यु के पश्चात् उसी गांव में किसी धोबी के घर में गधी हुई। वहाँ से मरकर पुनः उसी गांव में विष्टामुक शूकरी हुई। वहाँ से मरकर कुतिया हुई। उस भव में शुद्ध भाव आने पर मनुष्य का आयुष्य बांध कर मृत्यु हुई। वहाँ से नर्मदा नदी के किनारे आए हुए भृगुकच्छ भरूच नगर में वह काणा नाम की मच्छीमार की पुत्री हुई। वह अत्यंत दुर्भागा और दुर्गंधा हुई। उसके माता पिता उसकी दुर्गंध सहन नहीं कर सकने से उसे नर्मदा के तीर पर छोड़ आए। वहाँ यौवनवती होने पर वह हमेशा नौका से लोगों को नर्मदा नदी पार कराने लगी। दैवयोग शीतऋतु में समाधिगुप्त मुनि वहाँ आये और पर्वत की भांति निष्कंप रूप से कायोत्सर्ग में स्थित हुए। उनको देखकर ये महात्मा संपूर्ण रात्रि में शीत को कैसे हर सकेंगे? ऐसा विचार करके दया चितवाली उसने तृण द्वारा मुनि को आच्छादित किया। रात्रि निर्गमन होने पर उसने प्रातः उस मनि को नमस्कार किया, तब यह भद्रिक है ऐसा सोचकर मुनि ने उसे धर्म देशना दी। उस वक्त इन मुनि को मैंने किसी स्थान पर देखा है। ऐसा चिरकाल तक चिंतन करती रही। (गा. 239 से 250) फिर उसने मुनि से इस विषय में पूछा, तब मुनि ने उसके पूर्व भव कह सुनाये। तब महर्षि ने उससे कहा कि भद्रे! पूर्व भव में तूने साधु की जुगुप्सा की थी, इससे इस भव में तू ऐसी दुर्गधा हुई है क्योंकि सब कुछ कर्म के अनुसार ही होता है। ऐसा सुनकर उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। इससे वह पूर्व भव में की हुई जुगुप्सा के लिए बारबार अपनी निंदा करती हुई मुनि को खमाने लगी। तब से वह परम श्राविका हुई। इसलिए मुनि ने उसे धर्म श्री नामकी आर्या को सौंप दी। बाद में वह आर्या के साथ ही विहार करने लगी। एकबार किसी गाँव में जाते समय वहाँ नायल नाम के किसी श्रावक को आर्या ने उसको सौंप दी। उस नायल के आश्रित रहकर और एकातर उपवास करती हुई, जिन पूजा में तत्पर रहकर बारह वर्ष तक वहाँ रही। अंत में अनशन करके मृत्यु प्राप्त करके वह अच्युतइंद्र की इंद्राणी हुई। वहाँ पचपन पल्योपम का आयुष्य भोगकर वहाँ से त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व) 193
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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