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________________ पूजित जरासंध आदि सभी अपने अपने स्थानक गये ओर यादव कंस सहित एक वर्ष तक वहीं पर रहे। (गा. 38 से 42) एक बार वसुदेव ने एकांत में रोहिणी से पूछा कि अन्य बडे बडे राजाओं को छोड़कर मुझ जैसे बाजिंत्र बजाने वाले को तुमने कैसे वरण किया? रोहिणी बोली- मैं हमेशा प्रज्ञप्ति विद्या को पूजती हूँ। एक बार उन्होंने आकर मुझ से कहा कि दसवाँ दशार्ह तेरा पति होगा, उसे तू स्वयंवर में ढोल बजाने वाले के रूप में पहचान जाना। स्वामी उसी प्रतीति से मैंने आपका वरण किया। (गा. 43 से 45) एक वक्त समुद्रविजय आदि सभा में बैठे थे, उतने में कोई प्रौढ वयी स्त्री आशीष देती देती आकाश में से उतरी। उसने आकर वसुदेव से कहा कि घनवती नाम की मैं बालचंद्रा की माता हूं और मेरी पुत्री के लिए तुमको लेने के लिए मैं यहां आई हूं। मेरी पुत्री बालचंद्रा सर्व कार्यों में वेगवती है परंतु तुम्हारे वियोग से रात दिन पीडित रहती है। यह सुनकर वसुदेव ने समुद्रविजय के मुख की ओर देखा तब वे बोले- वत्स! जा परंतु पूर्व के समान चिरकाल तक मत रहना। तब राजा की आज्ञा लेकर अपने पूर्व अपराधों का खमाकर वसुदेव उस अधेड स्त्री के साथ गगनवल्लभ नगर गये। राजा समुद्रविजय कंस के साथ अपने नगर में आ गये और निरंतर वसुदेव के आगमन में उत्सुक होकर रहने लगे। यहां वसुदेव कांचनद्रंश्ट नाम के खेचरपति कन्या के पिता की कन्या बालचंद्रा से समारा है पूर्व के विवाह करूंगा उसके पश्चात पूर्व परिणीत सर्व उतम स्त्रियों का अपनी अपनी स्थानक से लेकर संख्याबद्ध खेचरों से युक्त होकर श्रेष्ठ विमान में बैठकर वसुदेव शौर्यपुर में आए। उस समय चिरकाल से उत्कंठित ऐसे समुद्रविजय ने उर्मिरूप भुजा को प्रसार कर चंद्र का आलिंगन करते समुद्र की तरह उनका दृढ आलिंगन किया। (गा. 46 से 53) 148 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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