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रत्नसागर, श्रीजिनपूजा संग्रह.
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॥ * ॥ अतुल विमल मिल्या अखं गुणें ॥ ए देशी ॥ ॥ * ॥ अतुल विमल प्रजुता प्रजुकी लख, चोसठ इंद्र व घरे ए ॥ चार प्रकारके सुर सब मिलकर समवसरण रचना करे ए ॥ अ० ॥ १ ॥ रजत कनक वररत्नप्रकारें, कनक रत्न मणि कंगुरा ए ॥ वृक्ष अशोक सिंहा सन शोभित, तीन बत्र चामर दुरा ए ॥ प्र० ॥ २ ॥ मुनि प्रमुख श्रवण सुखदायक, गहिर सुरे वाजित्र घुरे ए ॥ जानुप्रमाण पुष्पधन वरसत जल जथलज विकसित सुरे ए ॥ ० ॥ ३ ॥ साधु साधवी श्रावक श्राविका इंद्रादिक सुरी सुर वरे ए ॥ नरनारी तिर्यगू विद्याधर, द्वादशविध परिषद नरे ए ॥ ० ॥ ४ ॥ विजन धर्म त उपदेशें जोजन गामि मधुर गिरे ए ॥ प्रतिबोधत चौमुख श्रीजिनवर, निज निज भाषा अनुसरे ए ॥ अ० ॥ ५ ॥ ए पढके वासक्षेप करे ॥
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॥ * ॥ दोहा ॥ प्रगटपणें प्रजुकी प्रजा टी प्रभुता परमसम । परमातम पदनूप ॥ १ ॥ ॥
॥ * ॥ बिगरी कौन सुधारे नाथ विना ॥ ए देशी ॥ ॥ ॥ * ॥ नूमंगल जविकमल विबोधन, दिनकर सम जिनराया रे || ० ॥ प्रहुते इक कोमी अमरपद, पंकज जमर जुनाया रे ॥ जू० ॥ १ ॥ ग्राम नगर पुर पट्टण बिचरत, त्रिभुवननाथ कहाया रे || चौसठ इंद्र करें जाकी सेवा तन मनसें जयलाया रे ॥ ० ॥ २ ॥ इंद्राणी मिल मंगल गावतः मोतियन चोक पुराया रे ॥ सर्व जीव हितकारक प्रभुजी, निःश्रेयस सुखदाया रे ॥ ० ॥ ३ ॥ जवजलनिधि निर्यामक जगगुरु तारक सकल कहाया रे || शासननायक संघसकलकुं । प्रवचन तत्त्व सुनाया रे ॥ भू० ॥ ४ ॥ अनंतगुणाकर प्रभुजीकी महिमा वरने को कविराया रे || पर नप कारक प्रभुके पाठक, विजय विमल गुण गाया रे ॥ ० ॥ ५ ॥ ए कहके वासक्षेप करे | ॥
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॥ * ॥ (दोहा)। निज निज भाषा विकजन, तृपत न सुनतहि श्रोत ॥ मीठी अमृत सम गिरा, समजत श्रम नहि होत ॥ १ ॥
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प्रगट प्रकाशक रूप ॥ प्रग
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