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नंदीश्वर बावनचैत्य पूजा.
६४९ देव । शक्त्या त्रिकरण नक्त्या नम्यां नंदत एव । त्वामेव ददतु महोदय मेव श्री देवाधिदेव ॥१॥नशी श्रीऽहं० ॥३५॥ ॥ ॥ ॥
|| नश्तकूण प्रथम रतिकर पर्वत चैत्य आगे ८ प्रकारे पूजाकाव्यं॥ अवनय त्रायक शिव सुख दायक पनादि देव। त्वप्रिंबावलिमालित्य चैत्य विराजित एव । जातौ नैरुत बिदिश जग द्रतिकर कारक ईश । रति कर नत श्रयितो स्मि त्वा महमेवमुनीश ॥१॥नक्षी श्री ऽहं० ॥३६॥ ॥१॥
॥ ॥ नैऋत्यकूणे २ रतिकरे पूजा ॥ काव्यं ॥ अपरे रतिकर ऊपरि न नोचर चर्चित चैत्य । चंचुमुदं चचराचर केतु मुदार मुपेत्यं । श्री शषनादि पदोत्पल उज्वल अकल कृपेश । चेतो मधुकर नपरम तिस्म मे मुक्तिरमेश ॥१॥ झी श्रीऽहं श्री परमात्म०॥३७॥ ॥
॥ ॥ -- ॥ ॥ काव्य कहै ॥ समराधीश विदिशित्वदाश्रयतो रतिकारः । नदया चलति धरातल उत्तम जिनपविहार ॥ तत्र चतुर्विध शुधसुधा निधि बिवुध विवंद्य। श्रीषनादि प्रनुं प्रणमामि यशोजर नंद्यानझी श्री परमात्म०३८।
॥ ॥ अन्यतरे रतिकर गिरि शिषरे प्रवर प्रासाद । नद्यत चातुर्मार न दार अपार अनादि। चातुर्गत नव भ्रांति निवारक अभिनव जान । श्री रुष जादि जिनाय नमो नमो नानु समान ॥१॥नशी श्री ऽहं ॥३९॥ * ॥
नत्तरस्यां अंजन गिरि चैत्ये ॥ काव्यं ॥ चतुर शीति सहस्र योजन समुहिते सांजन गिरि । मूलतो दश सहस्र योजन विस्तृतः शिरसोपरि। एक सहस्र योजन नदीचीनौ रम्य श्री रमणायकः । स्तूयते तत्र सदैवमनका सार्व श्री ऋषनादिकः॥१॥नक्षी श्री ऽहं० ॥४०॥ ॥ ॥ ॥
॥ ॥ काव्यं ॥ ततोजनतोलन योजनगते विजया सुनृता । प्राच्या सुवापि सत योजन लामायत विसृता। अति कांत दधिमुख गिरि स्तस्यां अंबु मध्य गतोमता। स्तउपरि प्रनु श्री ऋषन प्रनुत सनमामि प्रमोदतः॥१॥ ज्ञी श्री परमात्म० ॥४१॥ ॥
॥ ॥ ॥काव्यं ॥ परिपूर्ण पथोवैजयंति दाक्षिणात्या तदगिरे। विपुल गगनोत्कर्ष दधिमुख पर्वत स्तदभ्यंतरे। तस्य शिषरे धर्मनिकरे विशदतर जिनमंदिरे। गतऽर्मतोहंजिन नमन पि पुण्ययुलस दीदिरे॥१॥४२॥ * ॥ ॥ॐ॥