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________________ पूरव दिशि जातां तिणे, सहाअडविसंपत्त॥१७॥ संपत्त दीवाकर तेज, संभरती पूरव हेज । विहुं पहुरे सरवरें जाइ, जलप्पीने वनफल खाइ ॥ थाकी मारग चालंति, एक तरुने मूलें सूती। सणसणे आदरे सागोर, चिंते पाछलो प्रकार ॥१८॥ रात हुइ जां तेतले, घरके वाघ अपार। सूअरचिहुंदिसि घुरहरें, सिंह करे गुजार ॥१९॥ फेकारी फेफे बोले, जे संभलि कायर डोले । धीत्राने रीछ संतावे, पुण सती समीप न आवे ॥ एम जपत पंचमवकार जाय रयणी दुइ पहर। तो बहु वेदनि सुते जायों, सर्वलक्षणशोभित कायो ॥२०॥ नामांकित मुद्रासहित, कंबलसुं वीटेव । सुप्रभाते सवरे गइ, सुत एकंते ठवेव ॥२१॥ अंबरने सरीर पखाले,उभी रहि सरवरपाले। तोजलंगजमुख किरालें, संडें धरि गयणि उलालें ॥ इण अवसर एक विद्याधर, वाटें जातां नंदीसर । पड़ती देखी करझाले, खेचर विमानमांहे घाले. 44|२२॥ रोयंती वेयगिरि, लेइ गयो खचरिंद । मयणरेह एम वीनवे, सुण तुं सामि ! अमंद ॥२३॥ सुभचंदन सरस सुत राने, मे मूक्यो पापनिदानें। तेहनी गति कहे किम होस्ये, आहार विना ते मरस्ये ।। तिण कारण मुपुरुस जाउ, मुत आणो करो पसाउ । तो भणे विद्याधरराय, मुझसुं करि भोगो पाय ॥२४॥पाव्हपुरराजियो, देस गंधार प्रसिद्ध खिचरनामे 'मणिचूड़े तमुः सुत इं विद्याम्रिद्ध ॥२६॥ कमलावती माहरी मात, हुं मणिप्रभ नामे विख्यात । बिहुं श्रेणि धणियपण पाल्यो, मुजताते कुल उजूआल्यो ॥ वैरागें लीधी दीख, मुझ
SR No.032080
Book TitleJain Ras Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandra Maharaj
PublisherGokaldas Mangaldas Shah
Publication Year1930
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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