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________________ ॥१९१ समरे० सासू सूसरो कोपीया, घरथी करी वेग । वहूनें काढे एकली, आणे उदवेग ॥१९२।। कमतणी गति अभिनवी, संभारे कंत। कहे अंजना प्रियडा विना, नारी नहु बलवंत ॥१९३।। कर्मतणी० आंकणी० विसन पडये कोइ नहु करे, तेहनो पक्षपात । एक सखी साथे थई, परच पुण्याविख्यात ॥१९४।। कर्मतणी० बे निरधारां चालियां, आव्या पीहरबार । माय बापु जाणी करी, नवि राख्याधार ॥१९५॥ कर्मतणी० ( दूहाः - ) । मुखायां सवि सासरे, पीहरि रलियां मान। कंत विहूणी | कामिनी, जिहां जाये तिहां रान ॥१९६॥ जिहां दीह हूंता पाधरा, तिहां नमतुं सहु कोइ । रावण भणे मंदोदरी, लंक-8 लंती जोइ ॥१९७॥ जिण दिनि वित्त न आपणे, तिण दिनि (मिने न कोइ। कमलां कईम बाहिरां, दिणयर वेरी होइ ॥१९८॥ कादव सूको वित्त गयो, मूकि गयां कमलांह । जाणो सूरस, नेहको, दिवे वकसावे तांह ॥१९९॥ ( ढाल-उपरनीः- ) अनादर मायबापनो, पामी निरधार । लाजी दुखिणी जाणती, संसार असार ।।२००॥ कर्म० एक सखी साथें अछे, आंसू झरती जोय। एक तीर्थकर ध्यावती, आधी चाली सोय ॥१॥ कर्म० गाम नगर पुरवर मझे, न रहे लाजंत । शीलवती) बनमां रहे. शर्मगुणि राजंत ॥२॥ कर्म० नदी सरोवर जलपीइं, फल फूल आहार । पूरे मासे जनमीयो, लंदन आधार ॥३॥
SR No.032080
Book TitleJain Ras Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandra Maharaj
PublisherGokaldas Mangaldas Shah
Publication Year1930
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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