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________________ २२१ ४१४ ॥ श्रावक श्राविकारे, आणाना आराधका । जे जगें हुवें जेहवो, भगवन कहें तेहवो ।। जिण ॥ ४१५ ॥ धर्म सुणि प्रति बूधा, व्रत पालीय सूधा । भणे श्रीसमरचंद तेय, सुख लहे अमेय ॥ जिण० ॥ ४१६ ॥ (ढाल-राग-धन्यासी. अंतरजामी सुण!० एना जेवी देशीमां.) । दीधी देसण वीर जिणेसर, हर्ष धरें सब लोई । आसणथी ऊठी प्रदक्षिण, त्रिणि दियें सहु कोई ॥ ४१७ ।। जगगुरुने भगति भावें भवि जन वंदें। चिंतामणीथी अधिको जिनधर्म, पापी मन आणंदें ।। जग० ॥ ४१८ ॥ (द्रुपद.) भव आरण्य ज्वलत केई देखी, जरा मरणथी भागा, जिनवर वाणी सीतल पाणी, धारा जसु तनि लागा ॥जग०॥ ४१९ ॥ शीतल भए लोचकरि केई, गृहवास जाणि असारा। छोडी पंच महाव्रत उचरें, भवसागरना तारा ॥जग०॥४२॥ महाव्रत उ.चरवा असमत्था, ऊचरें अणुव्रत तेई । पंच सात सिख्खा व्रत मेली, गृहधर्म बारह भेई ॥ जग० ॥४२१॥ महव्वय अणुवय जे नहु ऊचरें, ते पुण प्रभु पाय लागें। समकित लही वचन ईम बोलें, करजोडी प्रभु आगें ।। जग०।। ४२२ ॥ रूडो कह्यो धर्म स्वामी तुमि, ए समवड नहु कोई । एणि जग हुओ न होस्थे हिवडां, दरसण दीठा जोई ॥जग० ॥ ४२३ ॥ धर्म कहंत कह्यो तुमि जिणवर, उपशम धर्मे सारा । उपशम कही विवेक प्रकाश्यो, कृत्याकृत्य विचारा॥
SR No.032080
Book TitleJain Ras Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandra Maharaj
PublisherGokaldas Mangaldas Shah
Publication Year1930
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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