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________________ १९१ ( अढईओ . ) एकत्रीस कवलें जोइ, किंचित ऊणो होइ । ऊणोदर कहीए, अतिलोलप नही ।। ९९५ ।। एणि परि वत्थने पत्त, सुद्धग्रहे एकचित्त । प्रीतकरथी लहीए, अलप घरे सहीए || १९६ ।। ( फाग. ) कलह करे नहु कोइस्युं झंझा वादि विशेष, द्रव्य क्षेत्र काल भाव अभिग्रह करेरे अशेष । भिक्षाचरि ते जाणवी द्रव्यत जे द्रव्य लेइ, खेत्रत ग्राम ग्रामांतरि कालत मध्यान्हे देइ ।। १९७ ।। भाव स्त्री अथ नरवर हसत रुत गीतगान, भूषण विण अथ तिणि युत बालक थेर जुवान | ऊपाड्यो भोजन भणी भाजनथी ओखित्त, एहवो अशनादिक ग्रहे ओखििखत्त चर ते उत्त ॥ १९८ ॥ ( काव्य . ) हिवं निखित्तचर ते श्रुति कहीजे, जे पाक भाजन थकी अन्न लीजें | ऊपाडीय मूक्यो तेहथकी अनेथि, ओखििखत्त निखित्त ते चरय ग्रंथि ॥ १९९ ॥ हिवं भोजन पात्रथी जे ओपाडवो, ते निख्खित्त उखित्त सूत्रिं चावो । एम गृहस्थि निज अरथें मुनिवर करेवो, अभिग्रह मन धर्म्म ध्याने धरेवो ॥ २०० || (अढइओ) परीसतां दे आहार, दोष न थाये लगार । झिमाण चर ए, लेतां मन ठरए || || २०१ ॥ शीतल करवा काज, गाल्युं पटादि जिनराज वळी भाजन घर ए, साहर माण ऊचरए || २०२ ।। 1
SR No.032080
Book TitleJain Ras Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandra Maharaj
PublisherGokaldas Mangaldas Shah
Publication Year1930
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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