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________________ १७२ 1 इस जिम पूरी कुक्षि, सदा झसोदर जिन प्रत्यक्ष ॥ ३८ ॥ गंगा वर्त्तक ओम गंभीर, नाभियें दीसे साहस धीर । दर्पण मुसल वज्र जिम कडी, त्रिवली सहित मझि संकुडी ॥ ३९ ॥ सिंह तुरय जिम अतिवाटुली, दीसे प्रभुनी कडि पातळी । अश्व पर गुह्य प्रदेश, निरुपलेप अप्पान असेस ॥ ४० ॥ शरीर वायु अनुकूली सदा, गुद मूल नहु लागे एकदा | पंखी तणी परि जरे आहार, उदरादिक पंखि सुभर सुधार ॥ ४१ ॥ ऐरावण गजनी परि गती, चाले संघ चतुर्विध पती । शाथल गज मुंडा जारसी, गूढ जानु जंघ मृग सारसी ॥ ४२ ॥ घूंटी गूढ संठित सुसिलठ्ठ, कर्म्मतणी परि पगसु पट्ट । चडती ऊतरती अंगुली, ओन्नत नख आरक्तावळी || ४३ ॥ पग तल रतुप्पल मृदु जेम, विस्तर गुण कहि सकिये केम । तिणि संखेपि करी गुण कला, गुरु मुख उबवाईथी लह्या ॥ ४४ ॥ नभ कागल सवि सायर मसी, मेरु लेखनि सुरगुरु ओल्हसी। जिन गुण लखतां न लहे पार, श्रीसमरचंद्र इम करे. विचार ॥ ४५ ॥ ( ढाल - धन धन स लहीये. ) 38 अतिशय तमु चोत्रीस हिव, कहीस्युं श्रुत आधार | गृह वासें तह केवळे, सहज सुर कृत विचारीयेरे. जिणवर स लहीये ॥ ४६ ॥ सहजे सोवन वण्णोरे, अतिशय गुण नितु दीपतां | वंदे ते जण धण्णोरे, जिणवर स लहीये ।। (आंचली) मात कुक्षि जब अवर्या, दीख न लोधी ए जाम | अतिशय च्यारि सभावना,
SR No.032080
Book TitleJain Ras Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandra Maharaj
PublisherGokaldas Mangaldas Shah
Publication Year1930
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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