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________________ वलि पंच, दुविधरांध रूसपण प्रपंच ।। संभ० ॥१९।। सफरस आणुपुवीचार, दुविध विहायोगति सुविचार ॥ संभ०॥२०॥ उपघातादिक प्रकृति सुजाण, ओलखि लेज्यो वलि निर्माण ॥ संभ० ॥२१॥ सदस दसथावर पराघात, नाम करमनी इणपर वात ॥ संभ० ॥ २२ ॥ उद्योतने आताप ऊसास, अगुरुलघु तीथंकर सुविलास संभ०॥२३।। प्रकृति नाम समरूप लेवावे, रूपसरिस सही नाच तचावे ॥संभ०॥२४॥ वीस कोडाकोडिसागर कहीए, थिति उतकृष्टी एहनी लहीए ॥ संभ० ॥२५॥ नीच ऊंच दोय प्रकृति वखाणी, गोत्रकरमनी ए जिनवाणी ॥संभ०॥२६॥ रूपकुलाल सरीसोधारे, नीच ऊंच गोत्रे अवतारे ॥संभ०॥२७॥ सागर वीसकोडाकोडि सीम, स्थिति उतकृष्टि जाणोनीम ॥संभ०॥२८॥दानादिकपांचे स्वतराय, करतां तेहज नाम कहाय ॥संभ०॥२९॥ भंडारी सम कहीए तेह, नाम सरिस फल आपे एह ॥संभ०॥३०॥ ( दृहाः- ) ए साते राजा कह्या, मोह सरिस बलवान । निजर चरित देखावता, चित्त अतिधरे गुमान ॥१॥ मनछंदे आपापणे, नवर स्वांग धराय । नाच नचावे जीवनें, ते. विणु केवल न कहाय ॥२॥ अकर्म जिणवर कह्या, तिणमें मोहे विशेष । टीकायत करि थप्पीयो, बल अपारसंपेख ॥३॥ अष्टमांहि चोथो अछे, पण टीकायत जाण । कवियण जूओ वर्णवे, निजर बुद्धि प्रमाण ॥४॥ बीज भूत सातातणो, मूआ जिवावे
SR No.032080
Book TitleJain Ras Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandra Maharaj
PublisherGokaldas Mangaldas Shah
Publication Year1930
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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