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________________ थया जे संतान, सगपण कहो जे मतिमान ॥२२॥ इम चरित। हुआ छे जेह, कहतां नवि लाभे छेह । जे पाकतणी विधि जाणें, देखी कण एक वखाणें ॥२३॥ a ( दूहाः ) । अन्जामुखथी सांभली, सगपणना विरतंत । कुबेरदचे वैरागीयो, चारित्र ले एकंत ॥१॥ मोहरायगति वंकडी, जांणे जे हुइ जाण । श्रवणे श्रुत संगम विना, स्युं जाणे अजाण सा करम तणी छे अकलगति, सांभलज्यो सहु कोइ । (संवेगें चित्त आणज्यो, सरस चरित ए जोइ ॥३॥ ( ढालः-मिथिलानयरि जाणोयें, जुगबाहु नररायरे-एदेशी) ___ कुबेरदत्त इम सांभली, हियडामांहि विमासेरे । अचरिज कारी करमतणी गति, कहेतां एम तमासेरे ॥१॥ भविकजन एक मन थई, निज चरित संभालोरे। श्रीजिनआगम हृदय धरीनें। चेतनरूप निहालोरे । भवि० ॥ आंकणी० ॥ २ ॥ मोहतणो नाटक अपरंपर, स्व र्वारूप रमावरे । रामति रमता जीव संसारी, कालअनंत गसावेरे ॥ भवि० ॥३॥ खेलो तणो इक वृद्ध अखाडो, सुहेमसिंगोद वखाण्योरे । मादिरहित वलि अंतविवर्जित, केवलधर तिण जाण्योरे ॥भवि०॥४॥ काललबधिवस कोइक प्राणी, तेह अखाडो छोडेरे । काल अनंतो पंचथावरमें, बादररूपें दोडेरे भवि०॥५॥ समयंतर तिहाथी नीसरीनें, विकल अखाडे आवेरे । बहुभव तिहां बितिचौरेंद्री मांहि, वलि२ मोह नचावेरे । भवि० ॥६॥ पूरणथिति करि
SR No.032080
Book TitleJain Ras Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandra Maharaj
PublisherGokaldas Mangaldas Shah
Publication Year1930
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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