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________________ ३६६ संस्कृत साहित्य का इतिहास विवरण, (५) तर्कन्याय, (६) सन्तानान्तरसिद्धि और (७) सम्बन्धपरीक्षा तथा उसकी वृत्ति । इनमें से न्यायबिन्दु संस्कृत में उपलब्ध है । अन्य ग्रन्थ केवल अनुवाद रूप में प्राप्त हैं । शान्तरक्षित ने ७०० ई० के लगभग तत्त्वसंग्रह ग्रन्थ लिखा है। उसने इसमें अपने समय के अन्य दार्शनिक मतों की आलोचना की है। शान्तरक्षित के शिष्य कर्मलशील ने ७४६ ई० में तत्त्वसंग्रहपंजिका नाम से इसकी टीका की है। कल्याणरक्षित हवीं शताब्दी ई० के पूर्वार्ध में हुआ था। उसने ये ग्रन्थ लिखे हैं--(१) सर्वज्ञसिद्धिकारिका, (२) बाह्यार्थसिद्धिकारिका, (३) श्रुतिपरीक्षा, (४) अन्यापोहविचारकारिका और (५) ईश्वरभंगकारिका। कल्याणरक्षित के शिष्य धर्मोत्तर ने ये ग्रन्थ लिखे हैं(१) न्यायबिन्दुटीका, (२) प्रमाणपरीक्षा, (३) अपोहनामप्रकरण, (४) परलोकसिद्धि, (५) क्षणभंगसिद्धि और (६) प्रमाणविनिश्चयटीका । धर्मोत्तर का समय ८५० ई० के लगभग समझना चाहिए। रत्नकोति १०वीं शताब्दी ई० के पूर्वार्ध में हुआ था। उसने ये ग्रन्थ लिखे हैं-(१) क्षणभंगसिद्धि, (२) अपोहसिद्धि, (३) स्थिरसिद्धिदूषण और (४) चित्राद्वैतसिद्धि । ज्ञानश्री (लगभग ६५० ई०) ने ये ग्रन्थ लिखे हैं--(१) कार्यकारणभावसिद्धि, (२) व्याप्तिचर्चा और (३) प्रमाणविनिश्चयटोका । बौद्ध दर्शन की प्रसिद्धि मुख्यरूप से उसके प्राचारशास्त्रीय सिद्धान्तों के कारण हुई है । नागार्जुन, असंग और वसुबन्धु जैसे प्रकाण्ड विद्वानों, दिङनाग और धर्मकीर्ति जैसे ताकिकों तथा कर्मलशील जैसे लेखकों के भगीरथ प्रयत्न से बौद्ध-दर्शन एक दर्शन के रूप में सफल हो सका है । बौद्ध धर्म में प्राप्य आचारशास्त्रीय सिद्धान्त बौद्धधर्म की ही विशेषता नहीं है । ये सिद्धान्त वैदिक ग्रन्थों में भी प्राप्य हैं। इसके शून्यतावादी सिद्धान्त के कारण अन्य दर्शनों के विद्वानों ने इस दर्शन पर आक्षेप किए हैं। इसी कारण से यह दर्शन अपने जन्म-स्थान भारतवर्ष में विकसित न हो सका। जैन धर्म वर्धमान महावीर (५६६-५२७ ई० पू०) जैन धर्म के संस्थापक थे । उन्होंने पार्श्वनाथ (८०० ई० पू०) के द्वारा संस्थापित और अपने समय में
SR No.032058
Book TitleSanskrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV Vardacharya
PublisherRamnarayanlal Beniprasad
Publication Year1962
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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